उत्तराखण्ड सिनेमा में साहित्यकारों की भूमिका!
जिस तरह हिंदी फिल्मों में साहित्यकारों उपयोग होता रहा समय समय पर उस तरह उत्तराखंड सिनेमा कम होता दिखा कथा पटकथा में ,गढ़वाली कुमाऊनी सिरियल्स फिल्मों की कहानी, संवाद लंबा सफर तय करने के बाद लोकप्रिय नही हुए हैं उन्हें आज भी दर्शक फ़िल्म मे संवाद कथा लिखने को वालों नाम से पहचानते हैं ।लेकिन जो पत्रिकाओं किताबों में कहानियां लिख रहे हैं उन्हें उनके काम से पहचान मिली है
यह उत्तराखंडी सिनेमा की एक बड़ी विडम्बना है। जिसमें गढ़वाली कुमाऊनी के गम्भीर साहित्यकारों की कोई भूमिका ही तय नहीं है। इसीलिए मराठी बंगाली अन्य प्रादेशिक सिनेमा के मुकाबले गढ़वाली कुमाऊनी सिनेमा की स्थिति दयनीय ही है। ऐसा कोई सिनेमा अभी तक नहीं आया है जिसने गीत संगीत के अलावा कोई विशेष छाप छोड़ी है। जबकि गढ़वाली साहित्य में नरेंद्र कठैत जैसे लेखक भी हैं जो नाटक लेखन और रंगमंच साहित्य की गहरी समझ रखते हैं जिनके कथा व्यंग आलेख तक मे एक सशक्त पटकथा दर्शन होते हैं ऐसे लेखकों सद्पयोग उत्तराखण्ड सिनेमा नही कर पाया गढवाली सिनेमा गम्भीर लेखकों से दूर रहा है जिससे भाषा और संवाद लोकप्रिय नही रहे इतने जितने गीत रहे।
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