कहानी
सुग्गे की पाती
विद्याधरी की दिनचर्या तय रहती हैं और स्नानादि से निवृत्त होकर घण्टों की ध्यान-साधना फिर फुलवारी मैं समय बिताना… कलियों को देखकर खुश होना… फूलों को एकटक निहारते रहना। यह सब तब तक चलता है जब तक माली खुद ही टोककर उनका हालचाल न पूछ ले…! फुलवारी से निकलकर … दाना चुगते….. उड़कर डाल पर बैठते… फिर वापस दाने के लिए आते पक्षियों की अठखेलियाँ रिझाती हैं…! कुछ समय विहग-क्रीड़ा का अवलोकन करके विद्याधरी मड़ई की ओर बढ़ीं जहाँ कपिला उन्हें अगोर रही थी…! एक गाय का दुआर पर होना सौभाग्य ही है। मूक पशु अधिक संवेदनशील लगते हैं…! लगभग निर्जन जंगल में आसपास के बाशिन्दे विद्याधरी के बारे में अधिक नहीं जानते…! विद्याधरी नाम भी उन्हें इसी क्षेत्र के किसी बुजुर्ग ने कभी दिया था…! बाकी वर्तमान ही पूजित होता है। अतीत-भविष्य से मुक्त एक सहज जीवन जीती तेजोमयी बुढ़िया सबको आकर्षित करती है।
विकसित देशों में भ्रमण करके विद्याधरी ने अत्याधुनिक सुविधाओं की निःसारता का साक्षात्कार किया था। भीतर के गहन विस्तार में परिवार भटक सकता था इसलिए प्रकृतिमय हो गई थी यह युवती । स्वयं को समझने और संसार को बस देखते रहने में ही सुख है, यही मर्म समझा था विद्याधरी ने मिट्टी के चूल्हे पर सुखी लकड़ियों के सहारे कुछ पक जाता तो चौबीस घण्टे पोषित हो जाते…। पास के झरने का ध्वनिमय जल और सरकती सरसराती हवाएं ही असल खुराक होती हैं….! छापवाली महीन किनारी की सूती धोती में लिपटी विद्याधरी गन्धर्वबाला लगती….! विद्याधरी के खर्चे कैसे चलते हैं यह रहस्य था… पुराने नाम के साथ समग्र सम्पत्ति किसी मिशन को अर्पित करके इधर बस थीं विद्याधरी…!
गोधुली में सूरज की ललाई ऐसी छितराई थी जैसे अकासी अंचरा हो…! बेधती संझा में लक्ष्मी के आने के उद्देश्य से देवरी जलाती विद्याधरी को पास के कबीले के बच्चे ने एक लिफाफा दिया। निश्चेष्ट भाव से लिफाफे को कौरा में संभालते हुए दिया जलाकर अंचरा से उजाले के पाँव पकड़कर माथे लगाया और ढेबरी चौखट पर कुछ ऐसे रखी कि बाहर-भीतर अंजोर रहे और हवा से बचाव भी बना रहे। फिर लालटेन का शीशा पोंछने की बारी आई। पुरानी धोती के टुकड़े से शीशा चमकाकर बत्ती बढ़ाकर लालटेन जलाया फिर शीशा सेट कर दिया और दुआर पर की मजबूत कईन में लालटेन लटका दिया। दिन भर मीठे जल पर बीता था इसलिए अब भोजन प्रसाद के लिए दुपहर में पिछवारे से तोड़कर लाई हुई लौकी उबालनी थी। चूल्हा जलते ही धुंआ आकाश की ओर बढ़ा और विद्याधरी को लिफाफे की याद आई। चुटकी भर नमक डालकर लौकी उबलने को रखी और सोचा जितनी देर में लौकी पकेगी उतने समय में अज्ञात की जाँच हो जाएगी। ऊपर से सादे लिफाफे के भीतर की लिखावट एकदम पहचानी हुई मिली। अतीत मुक्त कहाँ होने देता है भला…! मन डूबने लगा भंवर में….! चूल्हा पझा चुका था…! चिट्ठी पूरी खुली धरी रह गई …..
प्रिय सुग्गी ,
सालों बीत गए, आपसे बतकही न हुई। विकसित संचार साधनों के बावजूद भी हमने सिर्फ आपको महसूस किया है…। कहते हैं संवाद न होने में प्रेम पल्लवित ही नहीं होता, बस ही या बचती है जो समय के प्रवाह में पीछे छूटती जाती है और पी पडली हुई कहीं को जाती है। न आपसे बात हुई और न ही आपके बारे में बात हुई लेकिन मिलन की अनुभूतिता है भीतर कुछ भर गया है, ढंग से पसीना छूटता नहीं लेकिन देह भौजी लगती है, मन समझ सब इतने गोर्ष पर है कि स्वयं के प्रति सम्मानभावना ही स्थिर है। सुरंगी धरती के दूसरे छोर पर रहकर भी तुमसे विलग हो पाना विवेक बुद्धि के बस का न हो सका…. अस्तित्व की नैसर्गिक गति मैं आप मिली है। मैं अमीर हुआ हूँ आप से बस इसलिए आपको खोना नहीं चाहता… आपको न खो इसलिए कोई सम्पर्क-संवाद न रखा. आप मुझे मुझसे अधिक समझती है न
सुनिए समान की मंच पर जब मिलता है और अक्सर विशेष पर जब पत्नी मह के देते हुए फोटो खिचाती है तो सब बेस्वाद लगता है जबरदस्ती वाली मुस्कान की तो आदत विकसित हो गई है, हर जगह आभार ज्ञापन भी औपचारिकता ही है…. असल सुख तो तब मिला था जब भोर में अज्ञात जल्दबाजी करते हुए पाँच मिनट पहले ही डिपार्टमेंट पहुँच गया था और सामने खिले हुए बल में पता नहीं कौन-सा अदभुत घमत्कार दिखा था। ऐसे लगा सालों से वहरा में पेड़ गया हो गया है जिसे सिर्फ में देख पा रहा हूँ…. और सभी उसकी एक फोट खींचकर आपको भेजा था…। इसी सम्प्रेषण में अपना नवीन बोध साझा हो गया था. पर यही नहीं मिलता सखी… बड़ी कृत्रिमता है दैनन्दिन जीवन में सच कहूँ तो पत्नी भी दिखावटी नमूना लगती है इस जीवनचर्या सुव्यवस्था का उपकरण बनकर रह गई है। पत्नी के होने भर से समाज में आसानी से नैतिक अनुशासित बन शक हूँ बस यही लाभ है विवाह संस्था का देह के दंगाल में प्रेम का स्वाग भरने में कया हूँ मैं।
सुरगी.. आप अन्त का सर्वस्व हो… तमाम ज्वैलरी की अत्याधुनिक सुविधाओं में भी पत्नी के चेहरे पर उल्लास नहीं छलकता ही तुम थी जो गुलमोहर की पंखुड़ियों से मेरा नाम लिखती और हवा का तेजोज एक-दो पंखुड़ी इधर-उधर करता तो से सही करके लाकर खुद चट्टान बनाओं को रोक देती और जमीन पर लिखी फूलों की इमारत बचाए रखती…. उस दिन तुमने घण्टो इंतजार किया और अंत में फोटो उस पुष्पमास वाले मेरे नेमप्लेटका साथ तुम्हा मैसेज मेरे यह फुटे कद को बौना कर दिया था। तुमने लिखा था मुझे पता है आप अत्यधिक व्यस्त होंगे. आपकी व्यस्तता बढ़ती रहे. आप जगत में अपनी आमा बिखेर रहे यही प्रार्थना में पराम्बा से आती हुई आप पर गुना या न आपको उलाहने देने से लड़ना था। अक्सर मैं आपको आई-गई टाइप साधारण प्रेमिका समझना चाहता लेकिन आप अदभुत दिखती.. मैं आपको महादेवी कह जाता था.
जब मन के शो में पवित्र नेह रस की अजय धारा अक्षुण्ण ही तो ही जलती रहेगी सुग्गी में आपको कभी भूला नहीं… न भूल सका… न ही भूलना चाहता हूँ आपको भीतर ही भीतर जिए जाना मेरा सौभाग्य है मिलना और
देह के स्तर पर उतरना …. पहले का पता नहीं लेकिन अब बेजान लगता है…! बहुत खोखला हो गया हूँ…..! मन आपमें इतना समवाय रहता है की शरीर काठ लगता है बस साँस चलती महसूस होती है…..! ये असम्प्रज्ञात की स्थिति है क्या सुग्गी…..! सुग्गी… मुझे आपसे बस मिला है… मैं कुछ दे न सका कभी…. या समझिए आपको कुछ दे सकने की योग्यता ही नहीं मुझमें… लेकिन मन से मान देता हूँ… स्व का समर्पण है….! तमाम थकान के बाद… एकांत- विश्राम में आपको महसूस करते ही गले में माधुर्य घुलने लगता है… जिसका स्वाद मैं गटकता रहता हूँ…! जैसे निर्जला एकादशी के अगले दिन मुँह में मिठास घुली रहती है… वही सुख हैं आप…!!
सुग्गी ….. मैं समय के साथ प्रवाहित हूँ… दिखावटी हूँ… चाकचिक्य में हूँ… लेकिन आप कालजयी हैं, बहुमूल्य रत्न हैं… अनमोल धरोहर हैं…! और यही हमारी पूर्णता है… न! आपमें नैसर्गिक आभा है… आपका परं तत्त्व से लसतगा स्पष्ट है, बाकी दुनिया भटकती दिखती है मुझे..!! आप स्वस्थ रहिए…. चिरयुवा रहिए… मेरी रसभरी हैं आप..! आपमें चिन्मयी रस है…! आपसे ही मेरे भीतर की अज्ञात कालकोठरी दमकने लगी है…! मैं खुद को पाया हूँ… मुझमें प्रकाश भरने वाली हैं आप…!! मैं अहंकार पोषित करने के लिए जीवन-यात्रा में दौड़ रहा हूँ, मुझे शीर्ष पर पहुँचना था लेकिन मैं खोखला हो चुका हूँ…! अब अपना लो मुझे…! मुझमें अथाह अवकाश है…. समा जाओ मुझमें… मैं सर्वस्व छोड़कर यहीं आ जाऊँगा…. हमें कोई न हेर पाएगा…! बड़ी जद्दोजहद के बाद तुम्हारा ठौर ज्ञात हुआ तुम्हारे सामने होऊँगा…. स्वीकार लेना मुझे…! है। सुबह मैं
तुम्हारा
सुन्नर सुग्गा
चिट्ठी खुली थी, लौकी ठंडी पड़ी थी, दरवाजा बाहर से बंद था। घर के थोड़े से सामान अपनी जगह पर थे। विद्याधरी गहरी रात में निकलीं और अनजान दिशा में बढ़ती गई…! जंगल के जिस छोर पर कभी न गई थीं उसे पार करके आगे बर्दी… बढ़ती गई … पक्षियों की चहचहाहट शुरू हुई…. अंधेरा छंट रहा था। हल्के उजाले नए ठिकाने सुझा रहे थे, सूरज निकलने वाला था.. सामने ही एक पहाड़ी से झूलता झरना दिखा…..!
कल्पना दीक्षित
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