November 4, 2024

Ajayshri Times

सामाजिक सरोकारों की एक पहल

साहित्यिक चिंतन के सरोकार ===धन्यवाद ✍🏻 प्रखर दीक्षित फर्रुखाबाद(उत्तर प्रदेश)

साहित्यिक चिंतन के सरोकार
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साहित्य समाज का दर्पण कहा गया है और साहित्यकार समय का चितेरा। साहित्य सृजन और साहित्यिक मेधा के चिंतन में वही प्रतिबिंबित होता हो जो तत्कालीन कालखण्ड में घटित होता है। जिसे सृजनकार अपने चिंतन की विषयवस्तु बनाता है। देशकाल और परिस्थितिजन्य प्रभाव साहित्य के कारक सिद्ध होते हैं। यहीं कारण कि पूर्व के सृजन में कभी अधिनायकवाद हावी रहा।उसके प्रशस्ति वाचन में साहित्यकार ने समग्र ऊर्जा खपा दी , तत्पश्चात मध्यकाल में परमसत्ता(भक्ति रचनाऐं ) केंन्द्रबिंदु थी। इस दौरान आमजन उसकी समस्याऐं एवं वेदना उपेक्षा का शिकार रहीं।
आधुनिक युग या यूँ कह लें समकालीन साहित्य पूर्णत: जन केन्द्रित सृजित हुआ। इसके प्रकीर्णन में आभासी संसार के योगदान को कतई अनदेखा नहीं किया जा सकता हैं। प्रभावी तथा त्वरित सूचनाओं के विनिमय नें ज्ञानवर्धन के विभिन्न द्वार खोल दिए हैं । इससे नवसृजन को बल मिलता है। नव हस्ताक्षरों नवाचार सामने आता है । नए प्रयोगों का मार्ग प्रशस्त होता है,किन्तु आभासी संसार का एक स्याह पक्ष भी है जो इसकी स्वीकारोक्ति पर प्रश्नचिंह भी लगाता है। स्वायंभू मार्गदर्शक और समीक्षक अधिसंख्य आत्मश्लाघा, स्वयं की विज्ञापनबाजी, गुट और लाबिंग से पीड़ित हैं। दिल्ली और प्रादेशिक राजधानियों में प्रवास करने वाली यह अधपकी पीढ़ी नयी पीढी को को क्या सिखा रहीहै, यही आगत के कपाल पर चिंता की लकीरें खींचती है। इसके तईं दोषी कौन?…… समय, कट एण्ड पेस्टकी वृत्ति, भाषायी ज्ञान/ व्याकरण से दूरी, किलिष्टता और दुरुहता के नाम पर अपाच्य का सृजन या फिर सृजनशीलता की अंधी दौड?
आज गुणवत्ता से अधिक संख्या का महत्व है। सर्वथा सीखने सिखाने की संस्कृति का लोप ही दिखता है। कार्यशालाऐं , काव्य / विचार गोष्ठी का आयोजन किसी दिवास्वप्न से कम नहीं।
एक कहावत है– समय पर लिया गया निर्णय बाद लिए गये बहुत अच्छे निर्णय से अच्छा होता है।
सृजन निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । मात्र चिंताओं के पहाड़ खड़ी करके नयी पीढ़ी पर बालात दोष मढ देना क्या उचित कहा जा सकेगा?
भरोसा था जिस पतवार पर वह पतवार भी चटकी मिली।
विडम्बना यह कि तथाकथित साहित्यकार कृतियों की संख्या, साहित्यिक संस्थाओं से सारस्वत सम्मान झटकने की जोड- जुगाड में महारत, वैदेशिक साहित्यिक यात्राओं में नाम सुनिश्चित कराने वाले सम्पर्क सूत्रों के संग गोटी बैठाने हुनर सिंहासन पर विराजमान रखता है। यह पीढ़ी साहित्य रचती नहीं वरन साहित्यकार पैदा करती है। यह मरुभूमि को भी नखलिस्तान बनाने का माद्दा रखती है। कृतिकार की बिना अनुमति और सूचना के समीक्षा करना कदाचित इनका सैधांतिक अधिकार है। जबकि आलोचना का खेत आज भी बंजर दिख रहा है।
इनके प्रभामण्डल में कभी कभी योग्य प्रतिभाऐं काल कलवित होते देखा जा सकता है।
आख़िर इस दुष्चक्र की जडें कितनी गहरी फैली हैं। यह वह वट और पिप्पीलिका के वह वृक्ष हैं , जिसके नीचे एक हरित तृण भी पल्लवित की जुर्रत नहीं करता है । यह आवश्यक नहीं प्रत्येक चमकने वाली धातु सोना हो ।
साहित्य सदैव सत्य का हिमायती रहा है । कठिनाइयों के मध्य रचनात्मकता साहित्य का भरण है । सृजनशीलता के सागर में भाव तरणी पर जब शब्द यात्रा करते हैं तब सृजनकार का मौन स्वयं मुखर हो उठता है। यथार्थ में आज इसी प्रतिबद्धता की नितांत आवश्यकता है।

जय भारत- जय भारती

धन्यवाद
✍🏻 प्रखर दीक्षित
फर्रुखाबाद(उत्तर प्रदेश)

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