सम्यक्-व्यायाम {Right exercise}
[बुद्ध के सूत्र : व्याख्या―कमलेश कमल]

सम्यक्-व्यायाम का अर्थ है समुचित कर्म का अभ्यास, अष्टांगिक मार्ग का अभ्यास। यह है अपने केंद्र की तलाश। यह है कर्तव्य का पालन करते हुए कामना के त्याग का व्यायाम या अभ्यास। प्रश्न उठता है कि कामनाओं का त्याग क्यों आवश्यक है? कामनाओं के त्याग से क्या होता है?? इसका एक वाक्य में उत्तर है कि कामनाओं के त्याग, विसर्जन या लोप से साधुता, भव्यता और दिव्यता आती है।
अगर किसी को सौ रुपये की कामना थी और मिले पचास रुपये, तो दुःख होगा। यह कामना या चाहना ही दुःख को जन्म दे गया। एंड्र्यू कार्नेगी जब मर रहा था, तो उसके सेक्रेटरी ने पूछा-“आप संतुष्ट होंगे कि आप दस अरब डॉलर छोड़कर जा रहे हैं!”
एंड्र्यू कार्नेगी ने कहा,”संतुष्ट? बिलकुल भी नहीं! मेरा इरादा सौ अरब डॉलर कमाने का था।”
तो, कामना इतनी अधिक थी कि उसे दस अरब डॉलर का फ़ायदा नहीं, बल्कि नब्बे अरब डॉलर का नुक़सान लग रहा था। वह निश्चय ही दुःखी और मर्माहत मरा होगा।
ध्यातव्य है कि अगर कोई कामना नहीं, चाहना नहीं, एषणा नहीं, तो दुःख भी नहीं। कर्म किया, जो मिला ठीक, जो नहीं मिला वह भी ठीक। यही साधुता है।
साधुता आने से क्या होता है? साधुता आने से कार्य में संपूर्णता आती है, दिव्यता आती है और अनासक्ति घटित होती है। कर्तापन समाप्त होता है, निःशेष होता है। कर्ता कर्म तो करता है, पर लिप्त नहीं होता। इसे ही कृष्ण अनासक्ति कहते हैं, बुद्ध उपेक्षा कहते हैं और महावीर वीतरागता कहते हैं। वीतरागत भी बड़ी गहरी परिघटना है। इसमें न राग (लगाव) है, न विराग(नफ़रत) है, यह दोनों से परे है, दोनों से मुक्त है।
अनासक्ति आसक्ति की विरोधी संकल्पना नहीं है, वरन् यह तो आसक्ति और विरक्ति के मध्य एक निष्पक्ष बिंदु है। दुःख के संदर्भ में देखें, तो वस्तुओं से दुःख नहीं होता इससे आसक्ति हो तो दुःख होता है। उदाहरण के लिए अच्छा भोजन, या फ्रिज या टेलीविजन दुःख नहीं देता, अपितु इनसे आसक्ति हो, इनपर ध्यान रहे या इनके बिना काम ही न चले, तब यह दुःख का कारण है। यह आसक्ति जनित दुःख है। विरक्ति में इनसे चिढ़ है, दूरी है। अनासक्ति में है कि अगर ये हैं, तो ठीक और अगर नहीं हैं, तो भी ठीक। सम्यक्-व्यायाम इसी अनासक्ति का अभ्यास है।
सम्यक्-व्यायाम शुभ कर्म की चेष्टा है, पुरुषार्थ चातुष्ट्य की प्राप्ति का प्रबल प्रयत्न है, शुभ की उत्पत्ति का हरसंभव प्रयास है और अशुभ की समाप्ति की हर संभव कोशिश भी है। यह सत्याचरण है, अच्छे कर्मों का अभ्यास है। ऐसा भी कह सकते हैं की सम्यक्-व्यायाम मिथ्याचरण का त्याग है, मिथ्याचरण न हो, इसका अभ्यास है।
ज्ञातव्य है कि पाखण्ड और मिथ्याचरण को अज्ञान से भी बुरा माना गया है, पर यह दुराचरण से कम है। अज्ञानता को हम उद्यम से दूर कर सकते हैं। बस निष्क्रियता इसकी पोषक होती है। निष्क्रियता ख़त्म कि अज्ञान ख़त्म होने लगता है। पर, पाखण्ड और मिथ्याचरण के परिसमापन हेतु मन का संयम और साधना भी पूर्वशर्त है। हाँ, मिथ्याचरण दुराचरण नहीं है। बुद्ध का आशय था कि दुराचरण तो नहीं ही करना है, मिथ्याचरण भी नहीं करना है।
मिथ्याचरण का अर्थ है ऐसा आचरण, जो उचित नहीं होने पर भी उस व्यक्ति को दिखता नहीं जो इसे करता है। मिथ्या का अर्थ ही है- असत्य होते हुए भी सत्य जैसा आभास होना। जीवन की जटिलता में और होश की कमी में व्यक्ति मिथ्याचरण करने लगता है। वह करता तो ग़लत है, पर उसे लगता है कि वह सही ही कर रहा है। ऐसा अमूमन तब होता है, जब उसकी अंतश्चेतना की तारतम्यता खो जाती है, true north principles से उसका inner alignment खो जाता है।
सम्यक्-व्यायाम है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का विचारपूर्वक पुरुषार्थ करना, प्रयत्न करना। अर्थात् उसे नहीं करना, जो अकुशल कर्म है, या कहें कि उसे आरम्भ ही नहीं करना और जो अकुशल कर्म है या अकरणीय (नहीं करने योग्य) कर्म है, जैसे- असत्य, चोरी, जुआ, व्यभिचार, हिंसा, परद्रव्यहरण, परनिंदा, धोखा, लूट आदि कर्म।
यह भी सम्यक्-व्यायाम है कि अगर किसी तरह से ऐसा कोई कर्म आरम्भ हो भी गया हो, तो उसे तत्क्षण ही समाप्त कर देना, आगे न बढ़ाना। इसके लिए, मन के अनुशासन की बड़ी आवश्यकता रहती है। यह सदाचरण की सतत मांग करता है और यही सम्यक्-व्यायाम है।
आर्ष आश्वस्ति है कि बुद्धि के अनुसार मन और मन के अनुसार इंद्रियाँ होने से उत्थान होता है; परंतु इसके उलट हो जाने से पतन होता है। अर्थात् इंद्रियों के अनुसार मन और मन के अनुसार बुद्धि होने से पतन होता है। ऐसे में, अपेक्षित है कि हम बुद्धि के अनुसार मन और इंद्रियों को रखने का प्रयास करें।
रागरहित होने की चेष्टा ही सम्यक्-व्यायाम है। परिस्थितियाँ कैसी भी हों, अभ्यास यही हो कि हम असंपृक्त रहें, रागरहित रहें, मोहरहित रहें। परिस्थितिजन्य सुख भोगने वाला तो दुःख के जाल में देर-सबेर फँसेगा ही; क्योंकि परिस्थिति सदा एक-सी नहीं रहतीं। अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ आती-जाती रहती हैं- ऐसा विवेक रहना और इनमें सम रहने का अभ्यास करना ही सम्यक्-व्यायाम है।
सम्यक्-व्यायाम, आराम का विरोधी नहीं है, पर उसका नियंत्रक अवश्य है। आराम के आधिक्य से उन्नति सीमित होती है, लेकिन आराम के सीमांकन से उन्नति तीव्र होती है। अर्थात् जिन्हें उन्नति की स्पृहा है, उन्हें आराम कम कर देना चाहिए और असंपृक्त होकर अपने अविचल लक्ष्य के लिए कार्य करना चाहिए।
जब तक शरीर है, संसार का साथ है― चाहे वन में रहें या लंदन में। सम्यक्-व्यायाम बस बंधनों से नियंत्रित करता है और तात्कालिकता और क्षुद्रता से बचाता है। यह बताता है कि संसार में दुःख-सुख लगा है, कर्मो के फल के रूप में भी दुःख-सुख मिलेंगे ही, बस सम बने रहना है। पर, यह नियन्त्रित तभी होता है, जब चित्त नियंत्रित हो। यह सम्यक्-व्यायाम है संसार से राग हटाकर ईश्वर से अनुराग रखने का उद्यम और इस हेतु चित्त का अनुशासन। कह सकते हैं कि तत्त्वज्ञान का अभ्यास ही सम्यक्-व्यायाम है।
वस्तुतः अर्वाचीन मनुष्य का चित्त स्वभावतः बड़ा चंचल हो गया है। शब्द, शास्त्र, सिद्धांत, वक़्तव्य.. ये सब मूल नहीं हैं, आधार नहीं हैं, ये सब के सब चित्त पर निर्भर करते हैं और इस तरह चित्त ही मूल है, आत्यंतिक है, असल चीज़ है, महत्त्वपूर्ण है। गीता का पूरा का पूरा उपक्रम अर्जुन के अशांत चित्त को शांत करने का है, बाक़ी तो अर्जुन ख़ुद कर लेगा।
वस्तुतः, हम वही सोचते हैं और वही कर्म करते हैं जो हमारे चित्त में भरा होता है। अब कमज़ोर या पापी व्यक्ति का चित्त अत्यधिक डाँवाँडोल होता है, तो उसके कर्म भी अकुशल, अपटु या अकरणीय हो जाते हैं। सम्यक्-व्यायाम है इस डाँवाँडोल चित्त को नियंत्रित करने का अभ्यास, सम्यक्-कर्म में रत रहने का अभ्यास।
चित्त अगर शांत हो तो सम्यक्-व्यायाम हो जाता है- स्वीकार बोध का अभ्यास। ऐसे चित्त वाले व्यक्ति तो किसी के द्वारा किए गए अपकार को भी स्वीकार कर लेते हैं और उसे उपकार मानते हैं; क्योंकि यह उनके किसी न किसी पाप को काटता है। कोई व्यक्ति अगर उनसे क़र्ज़ लेकर नहीं लौटाता है, तो वे मान लेते हैं कि यह पूर्व का कोई हिसाब चुकता हुआ है। लब्बोलुआब यह कि शांत चित्त हर चीज़ को सकारात्मक और विधायक रूप में लेता है।
सम्यक्-व्यायाम है स्वभाव को शुद्ध, प्राकृतिक और अविकृत बनाने की सतत चेष्टा, दुराचरण न करने का संकल्प। स्वभाव अशुद्ध कैसे होता है, जिसे शुद्ध करना है? यह अशुद्ध होता है कामना से, स्वार्थ से, कर्तापन से, अभिमान से। इनसे बचने की कोशिश करते रहना ही सम्यक्-व्यायाम है। अगर कोई पाप हो ही गया, तो स्वयं को शुद्ध बनाने हेतु उसे कभी नहीं दुहराने हेतु सतत प्रयास करना ही उसका सबसे बड़ा प्रायश्चित है और यही सम्यक्-व्यायाम है।
सम्यक्-व्यायाम है अनावश्यक चीज़ों को छोड़ना, आवश्यक में रहना। यह है अतिव्यस्तता को छोड़ना और समुचित व्यस्तता में रमना। उदाहरण के लिए, आज के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के प्रयोग में या सोशल मीडिया के उपयोग में भी संतुलित रहना एक सम्यक् व्यायाम है।
मानवता को अतिव्यस्तता की खतरनाक बीमारी ने पहले ही घेर रक्खा है, अब इन गैजेट्स के अति उपयोग से रिश्ते-नाते, स्वास्थ्य आदि बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। सम्यक्-व्यायाम है होशपूर्वक या बोधपूर्वक इन्हें नियंत्रित करना और घर के सदस्यों के साथ समय बिताना। आख़िर, मरते समय ऑफिस में बिताए असंख्य घण्टे मानसिक परितोष नहीं दे सकते।
सम्यक्-व्यायाम है अध्यात्म चेतस बने रहने हेतु सतत प्रयत्नशील रहना अर्थात् तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना या सत्य के साथ स्वयं की सत्ता को एक करना, लीन करना, तन्मय करना, तल्लीन करना। सम्यक्-व्यायाम है यह समझना कि संयोग से मिलने वाला भोग भविष्य में वियोग से मिलने वाले दुःख की आधारशिला है। सम्यक्-व्यायाम है रागद्वेष से तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति से वियोग और शास्त्रप्रेरित योग।
【 दुःख शृंखला के मेरे 32 मनोवैज्ञानिक निबंधों में यह 30 वां है।】
आपका ही,
कमल
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