उत्तराखंड की सरकारी सेवाओं में महिलाओं को क्षैतिज आरक्षण को हाईकोर्ट में चुनौती
जागरण संवाददाता, नैनीताल: हाई कोर्ट ने हाल ही में राज्य की सेवाओं में महिलाओं के लिए 30 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण अधिनियम, 2022 को चुनौती देती याचिका पर सुनवाई की। कोर्ट ने सरकार को छह सप्ताह के भीतर मामले में जवाब दाखिल करने के निर्देश दिए हैं, अलबत्ता कोर्ट ने आरक्षण अधिनियम पर किसी तरह की रोक नहीं लगाई है लेकिन राज्य लोक सेवा आयोग की पीसीएस भर्ती प्रक्रिया के परिणाम को याचिका के निर्णय के अधीन कर दिया है। अगली सुनवाई छह सप्ताह बाद होगी।
आपकी जानकारी के लिए बता दें उपश्रेणियां जैसे महिलाएं, शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति, भूतपूर्व कर्मचारियों, स्वतंत्रता सेनानियों, खिलाड़ियों आदि को क्षैतिज आरक्षण मिलता है।
मंगलवार को मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विपिन सांघी व न्यायमूर्ति रवींद्र मैठाणी की खंडपीठ में दिल्ली निवासी आलिया की याचिका पर सुनवाई हुई। जिसमें कहा कहा गया है कि वह ऐसी महिला है, जिसके पास उत्तराखंड में निवास का डोमिसाइल नहीं है।
उत्तराखंड अपर पीसीएस परीक्षा-2021 में मेधावी होते हुए भी मात्र इसलिए अनुत्तीर्ण हो गई क्योंकि 24 जुलाई 2006 के सरकारी आदेश के माध्यम से उत्तराखंड महिला वर्ग को मूल निवास आधारित आरक्षण प्रदान किया गया था। इस आरक्षण से संबंधित शासनादेश को 24 अगस्त 2022 को उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी गई थी।
डोमिसाइल आधारित आरक्षण पर रोक के कारण, याचिकाकर्ता का प्रारंभिक परीक्षा में चयन हुआ है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था। जिसके बाद 10 जनवरी, 2023 को राज्य विधानमंडल की ओर से इस अधिनियम को बनाया, और राज्य में डोमिसाइल आधारित आरक्षण को फिर से शुरू किया गया है।
उत्तराखंड में फिर से महिलाओं को सरकारी सेवाओं में क्षैतिज आरक्षण का कानून अस्तित्च में आने से छह फरवरी को याचिकाकर्ता को पीसीएस मुख्य परीक्षा के लिए अनुत्तीर्ण घोषित कर दिया गया।
याचिकाकर्ता के वकील डॉ कार्तिकेय हरि गुप्ता ने न्यायालय के समक्ष दलील दी है कि उत्तराखंड राज्य के पास डोमिसाइल आधारित महिला आरक्षण प्रदान करने को कानून बनाने की कोई विधायी क्षमता नहीं है। यह अधिनियम केवल उच्च न्यायालय के आदेश के प्रभाव को समाप्त करने के लिए लाया गया है, जो अवैधानिक है, भारत के संविधान में इसकी अनुमति नहीं है।
यह अधिनियम भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन करता है। याचिका में यह भी कहा गया गया है कि यह अधिनियम नहीं बनाया जा सकता क्योंकि यह एक संवैधानिक असंभवता है और विधानमंडल ऐसा करने में अक्षम है।
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