February 11, 2025

Ajayshri Times

सामाजिक सरोकारों की एक पहल

वीर भड़ माधो भंडारी इगास बग्वाल में नही मंगसिर बग्वाल में आया था तिब्बत युद्ध जीतकर मंगसिर बग्वाल मैक मोहन रेखा भारत चीन तिब्बत से जुड़ी विजय कथा है

वीर भड़ माधो भंडारी इगास बग्वाल में नही मंगसिर बग्वाल में आया था तिब्बत युद्ध जीतकर ।मंगसिर बग्वाल मैक मोहन रेखा भारत चीन तिब्बत से जुड़ी  विजयकथा है

आज जहां पूरे उत्तराखण्ड में इगास बग्वाल को माधो भंडारी से जोड़कर देखा जा रहा किंतु गढ़वाल विजय का ये पर्व दीपावली से एक महा बाद मनाया जाता है जिसको मंगसीर की बग्वाल कहते हैं

तिब्बत पर गढ़वाल की विजय का उत्सव है मंगसीर बग्वाल
वर्ष 1632 में गढ़वाल नरेश राजा महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बत के दावा घाट में गढ़वाल और तिब्बत की सेना के बीच युद्ध हुआ था। गढ़वाल की ओर से सेनापति लोदी रिखोला और माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना युद्ध लड़ने गई थी। युद्ध लंबा चलने पर सेना दीपावली तक घर नहीं लौट पाई थी। तब सेनापति माधो सिंह भंडारी ने संदेश भिजवाया था कि तिब्बत पर विजय हासिल कर लौटने के बाद ही बग्वाल मनाई जाएगी। गढ़वाल की सेना दीपावली के ठीक एक माह बाद तिब्बत पर विजय हासिल कर लौटी थी। तभी से मंगसीर की बग्वाल मनाने की परंपरा चली आ रही है।देशभर में दीपावली के त्योहार को लोग भगवान राम के संघर्ष और कहानी से जोड़कर मनाते हैं, लेकिन गंगा व यमुना घाटी में दीपावली के मनाने का रिवाज राज्य के अन्य भागों से अलग है। इसे स्थानीय भाषा में देवलांग या मंगसीर की बग्वाल कहते हैं। इस बग्वाल की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं।। शिरोमणी वीरभड़ माधो सिंह भंडारी चौदहवीं सदी में तिब्बत पर फतेह कर इस दिन गढ़वाल लौटे थे।
सीमांत जनपद उत्तरकाशी के गांवों में इन दिनों लोग खेती के काम से लगभग निपट गए हैं। अब उत्सव का माहौल बनने लगा है और सबको मंगसीर की बग्वाल का इंतजार है। इसके लिए देवी-देवताओं की डोलियों की सजावट होने लगी है। नगर और कस्बाई इलाकों को छोड़ दें तो पूरे ग्रामीण क्षेत्र में कुछ खास ही नजारा है। रवाई के गैर, गंगटाड़ी व कुथनौर गांवों में इस त्योहार का उल्लास देखते ही बनता है। इन गांवों में सूखे पेड़ का विशाल टावरनुमा ढांचा खड़ा किया जाता है, इसे देवलांग कहा जाता है। जिसके चारों ओर तेजी से आग पकड़ने वाले चीड़ के छिलके बांधे जाते हैं।
त्योहार के दिन रात्रि को विशेष पूजा-अर्चना के बाद इस ढांचे पर आग लगाई जाती है। फिर हजारों लोग परंपरागत हारूल, तांदी व रासौं नृत्य गाकर, नृत्यकर एवं चूड़ा, गुड्ड तिल, बांटकर रातभर जश्न मनाते हैं। इसके साथ ही लोग भैला घुमाकर भी ढोल दमाऊं की थाप पर नृत्य करते हैं। मान्यता है कि गढ़वाल नरेश की अगुवाई में तिब्बती लुटेरों के साथ बहुत लम्बे समय तक युद्ध चला था। इस युद्ध में कुमायूं और गढ़वाल के योद्धाओं ने एक साथ मिलकर उत्तराखंड की रक्षा की थी। कुमायूं से गुरु कैलापीर ने और गढ़वाल से वीर माधो सिंह भंडारी ने युद्ध की बागडोर संभाली थी। युद्ध के कारण माधो सिंह भंडारी नवंबर की दीपावली नहीं मना पाये थे। वही बूढाकेदार में इसको कैलापीर की बग्वाल के रूप में मनाते हैं मान्यता है कि गुरु कैलापीर ने वीर माधो सिंह को दीपावली को उसी तारिख को अगले महीने बग्वाल के रूप में मनाने ने की बात कही थी। इसके बाद से ‘मंगसीर बग्वाल’ शुरू शुरू हुई। उत्तराखंड में ये परंपरा 500 साल पहले से चली आ रही है। तीन दिन तक चलने वाले इस मेले में दूर-दूर से मुख्य रूप से धियाण (बहु-बेटियां) आती हैं, घर से दूर रहने वाले लोग भी इस वक्त घर आते हैं। बूढ़ाकेदारनाथ और गुरु कैलापीर से सुखी रहने की कामना करते हैं।

सैन्य पृष्ठभूमि से जुड़ी  मंगसिर की दीपावली माधो भण्डारी जीवन से जुड़ी वीरता का उत्सव है

गढ़वाल में वैसे पांच बग्वाल होती एक तो छोटी दीवाली बड़ी दिवाली वाली बग्वाल , और एक टिहरी में राज परिवार द्वारा चलाई बग्वाल जो आज भी कही गांवों मनाई जाती राज बग्वाल और एक इगास बग्वाल (बोल चाल में बुड़ी दीवाली से भी लोकप्रिय )और एक बग्वाल दीवाली के माह बाद आती जो रँवाई जौनसार में बुड़ी दीवाली या मंगसीर बग्वाल कैलापीर बग्वाल के नाम से जानी जाती है जब माधो भण्डारी तिब्बत युद्ध जीतकर आया तब एक माह दीवाली मनाई गई आज भी माधो भण्डारी के वंशज रँवाई जौनसार में है। गढ़वाल में 5 तरह की बग्वाल मनाई जाती है
सरकार और सामजिक संगठनों को मंगसीर कैलापीर बग्वाल को विस्तार देना चाहिए क्योंकि माधो सिंह भण्डारी की वीरता की प्रतीक है  मंगसिर बग्वाल मैक मोहन रेखा भारत चीन तिब्बत सीमा प्रहरी को खींचने वाले वीर बलिदानी पुरुष माधो सिंह भण्डारी के श्रद्धाजंली स्वरूप उनकी वीरता के साथ मंगसीर कैलापीर बग्वाल को भी लोकप्रयिता मिलेगी विश्व मे।

 

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