फूल सक्रांत उत्तराखंडी समाज के बीच विशेष पारंपरिक महत्व रखता है। चैत की संक्रांति यानी फूल संक्रांति से शुरू होकर इस पूरे महीने घरों की देहरी पर फूल डाले जाते हैं। इसी को गढ़वाल में फूल संग्राद और कुमाऊं में फूलदेई पर्व कहा जाता है। फूल डालने वाले बच्चे फुलारी कहलाते हैं।
फूलदेई सक्रांत और पूरे चैत्र मास में घर की देहरी पर फूल डालने की परंपरा भी इन्हीं में से एक है। ऋतुराज बसंत प्राणि मात्र के जीवन में नई उमंग लेकर आता है। पेड़ों पर नई कोपलें और डालियों पर तरह-तरह के फूल भी इसी मौसम में खिलती हैं। बसंत के इसी उल्लास को घर-घर बांटने की एक अनूठी परंपरा गढ़वाल क्षेत्र में पूरे चैत्र मास निभाई जाती है जो फूलदेई सक्रांति से शुरू होकर बैशाखी तक अनवरत जारी रहेगी
‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखी गई ये पंक्तियाँ उत्तराखंड के लोकपर्व ‘फूलदेई’ या ‘फूल संक्रान्ति’ की सटीक व्याख्या करती हैं। देवभूमि उत्तराखंड विभिन्न संस्कृतियों को समेटे एक विशाल सभ्यता का नाम है। कई तरह की जाति और जनजातियों के मिश्रण से बना यह राज्य अपने नैसर्गिक रूप में ही अपने त्यौहारों के माध्यम से अपनी सुन्दर सांस्कृतिक धरोहरों को बयाँ करता है। अजयश्री फाउंडेशन और टीम समस्त उत्तराखंड समाज को फूल सक्रांति ढेर सारी शुभकामनाएं । आइए पाठकों इस अवसर में पढ़ते हैं शैलेन्द्र जोशी एक रचना जिसमे गढ़वाली भाषा मे फूल सक्रांत का किस तरह मानवीकरण अलंकार से सजाया है इस पर्व के भावों को
फुल्वी संगरान्द आली
कै बौण ग्वीराल होलू सोचणु#
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चैत नया साल मा
फुल्वी संगरान्द आली
कै बौण ग्वीराल होलू सोचणु
कु फुलारी ले जाली आज मैकू
कै बाटा फ्योंली देखणी होली
बाटा कै फुलारी कु
सोचणी होली मन मा!
मेरा कुंगला गात पड़ला
कै फुलारी का गुंदख्याला हात
कखी बुराँस तै होली आस
कै फुलारी कि
ज्यु मेंडो मा हिटी
आली आज मेरा धोरा
कखी पैंया कखी
आड़ू चोलों का फूल सोचणा
कु भगि फुल्वरि ले जाली
कै भग्यानी कि देली मैकू
रचना ।…….शैलेन्द्र जोशी
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