देहरादून शहर और जनपद की बाद करें तो यहां लगभग 150 गांव और कॉलोनियों के नाम के बाद वाला शब्द जोड़ा गया है. जैसे डोइवाला, डालनवाला, मियांवाला, हर्रावाला, मक्कवाला, अम्बीवाला, जोगीवाला, छिद्दरवाला, डोभालवाला, चुक्खुवाला, धामावाला, निम्बुवाला और आमवाला आदि कई ऐसे नाम हैं पर आपने नाटकवाला नही सुना होगा आखिर जानते हैैं क्या है ! नाटकवाला
राजधानी देहरादून में नाटकवाला कौन सी जगह है जाने नरेंद्र कठैत के आलेख से
कुलानन्द घनशालाः
गढ़वाली रंगकर्मं की सम्पूर्ण कार्यशाला !
गढ़वाल क्षेत्र से ऋषिकेश की ओर से ढलान से उतरते हुए ढालवाला, भानियावाला, डोईवाला, कुंआवाला, हर्रावाला, मियांवाला, जोगीवाला तक बढ़ते-बढ़ते ख्याल आया कि अगर इन स्थानों के नाम कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़े स्वनामधन्यों के नाम पर होते तो जोगीवाला के आस-पास ही कहीं ‘नाटकवाला’ नाम का भी एक पड़ाव अवश्य होता। उस पड़ाव से गुजरते हुए कम से कम उठती हुई पीढ़ी के रचनाधर्मियों की बुद्धि में तो स्वतः ही तैर जाता कि ‘नाटकवाला’ अर्थात् – कुलानन्द घनशाला !!


हालांकि इंही वालों के बीच ठौर-ठिकाना बनाने से पूर्व घनशाला जी ने समग्र गढ़वाली संस्कृति, परम्परा को अपनी रग-रग में उतारा। और फिर- ग्राम्य जीवन को मंच पर संवारा। यकीन से इसलिए भी कह सकता हूं कि बड़े भाई से लगभग तीस साल पुराना आत्मीय दायरा रहा है मेरा।
थोड़ा नैपथ्य में मुड़कर देखता हूं ….
तो सन् 1993 अगस्त माह के आस-पास मिले एक कार्ड को अपने हाथ में आज भी महसूस करता हूं। कार्ड में लिखा था- ‘प्रिय महोदय, आपको जानकर अति प्रसन्नता होगी कि गढ़गाथा कला मंच गोपेश्वर आगामी माह सितम्बर 93 में गढ़वाली हास्य-व्यंग्य नाटक ‘मनखि-बाघ’ का मंचन करने जा रही है। इस कार्य हेतु आपका सहयोग वांछनीय है,…. निवेदक: गढ़-गाथा कला मंच (परिवार) शाखा-गोपेश्वर चमोली।’
हार्दिक प्रशन्नता हुई! और उत्सुकता भी!
प्रशन्नता और उत्सुकता का एक पहलू यह था कि गोपेश्वर में उन दिनों एक-दो मित्रों के बीच ही मेरी परिधि सीमित थी। तथा- दूसरा यह कि ‘डा. आशाराम’ नाट्य कृति के लेखन के बाद मंचों से सम्बन्धित अभिरूची थम सि गई थी। अस्तुः ठीक अगले दिन सांय काल पुलिस ग्राउण्ड से सटे उस भवन के कक्ष में साधिकार दस्तक दी, जहां ‘मनखि-बाघ’ की रिहर्सल चल रही थी।
वहीं! आठ-दस पात्रों के बीच लम्बी छरहरी कद काठी, सामान्य वेशभूषा, नंगे पैर, रुके-ठिटके पात्रों के हिस्से की भी संवाद अदायगी करती या यूं कहें एक ही व्यक्ति में सम्पूर्ण रंगकर्म की छवि देखी। थोड़े से अंतराल के बीच ही जानकारी मिली कि आप नाट्य कृति ‘मनखि बाघ’ के लेखक भी हैं और निर्देशक भी। नाम है- कुलानंद घनशाला जी!
और यूं – नाट्यकर्मी कुलानन्द घनशाला जी से घनिष्टता बढ़ती चली गई। गोपेश्वर के बाद भले ही दोनों के बीच भौगोलिक दूरी बढ़ी लेकिन आपकी रचनाधर्मिता की धमक बराबर करीब आती रही। आस-औलाद, मनखि बाघ, अब क्य होलु, क्य कन तब?, रंगछोळ-( 16 गढ़वाळि नाटक, एंकाकी ,गीत नाटिकाओं का संग्रह) भी इसी अनुक्रम में पढ़ने को भी मिलती रही।
आपकी इन नाट्य कृतियों को पढ़ने पर भी आपके मंचीय कौशल की तस्वीर साफ झलकती है। आपने नाट्य कृतियों के संवाद ही नहीं अपितु शब्दों के गठन पर भी भरपूर मेहनत की है। नाट्य कृतियों में लोक परम्परा का सटीक चित्रण, अंक विभाजन, दृश्य परिवर्तन, मंगलाचरण, संवादों के बीच लोकोक्तियों, मुहावरों ,गीतों यहां तक की संगीत की आवृत्ति भी बेवजह ठूसी हुई नहीं लगती है। आपकी इंही नाट्य कृतियों की कुछ सरल, सुबोध पंक्तियां बरबस ध्यान खींचती हैं- जैसे कि-
-तु सच्च माण बेटा! ये घुंग्याट-फ्वींयाट मा त मेरु सांस सी घुटेणू छ। यांसि अपणु गढ़वाळ ही खूब च । कम से कम हवा-पाणी त ताजू च। शान्ति त छैं च। अर सबसी बड़ी चीज निर्भीक, कैकी न डर, न भै, यख त चल्दी-चल्दी कुजाणी कब ऐ जान्दन मोटरा ताळ। (आस औलाद)
-अरे सुणनी छै तु (क्वी आवाज नि औंदि) हे कनु बैरी ह्वे तु? मिन बोली जरा पाणि ल्हे एक लोट्या।(कुछ देर रुकि)दा कनु कपाळ फुटि चढ़िगे होला आंखा बरमण्ड ! हे सुणनी छई कि ना (खडु उठदु गुस्सा मा) हैं! रोज तेरू यु ही डरामा! अरे जिन्दगि कटिगे तेरा ये डरामा सी। लोग बाग सि जयां छन आंदोलन मा, भला काम मा, अर एक याच! अरे नि सुणी तिन(कुछ देर देखी) यार आज त वार या पार! भलो मि मोनु नि रयों पाणि बिगैर। (गुस्सा मा भितर जांदु अर फिर भैर एैकी) मी पर भी मिजाण आंदोलन कु दोष लगीगे। वा बिचारी त जख जंई होली अर मि स्यू छौं बबड़ाणु यखुली-यखुली। पर द्वार मोर त इन खुल्यां छन जन कुत्ता-बिरळों तैं न्युतु भेज्यूं हो। पर उ भी जाणदा छन कि अजक्याल आंदोलन चलणु च यख खाण ही क्या च। (अब क्य होलु?)
या
सुशीला- जी तु दाना मनखि ह्वेकि भी इन….कुछ त ख्याल कैरा अपणी उम्रौ,तुम्हारा त नौना ब्वारी जन छां हम।
कीड़ी-तबित बोलणु छौं बुबा जब तुम अपणा छां, अर तू नाराज होणी छै, फूक नि बोलदू मी, मेरु जी क्या च, पर ब्वारी चुल्ला पर भी धुंआ तभी होंदु जब आग लगदी। ( क्य कन तब?
अथवा
-(धै लगैकि)को छ रै डाळा कटणू?(रुकि-धै लगैकि)अरे मिन बोली को छ रौला डाळा कटणू?हे कनु बैरू ह्वे गे रे तू, सुणनि नि छै?(डाळा कटणै आवाज औंदि) यां को मतलब जरूर क्वी काचा डाळा कटणूं। कनु एकसासी लग्यूं छ देखादि। हे मिन बोलि या…..(रंगछोळ)
-(परेशानी सी)अरे कैकि कूड़ी पड़ि रे बांझा! क्य मिली होलु निरभाग्यों तैं आग लगैकि! अब मिन अकेला मनखिन क्य कन? यख दिखौ त हाथ पर एक दंदाळी ताकत नी, सरकारी गमबूट अर दस्ताना भी चैकी पर रै गेनी। कन मा बूझेलि या आग?(रंगछोळ)
-(उठिकै) कक्षा पांच वाळा हिन्दी की किताब गाडो, द्वि वाळा बराखड़ी याद करा, एक वाळा अ से अमरूद लेकी ज्ञ से ज्ञानी मतक याद करा, कक्षा तीन गणित का सवाल करा,चार वाळा द्वी से लेकी दस तक पाड़ा याद करा(हाजिरी रजिस्टर उठैकि दस्तखत करि) बलु! ये पर भोळे हाजिरी भी भरि दे ब्यटा मिन दस्तखत करियलिने। (रंगछोळ)
नाट्य विधा के संबन्ध में एक स्पष्ट तथ्य यह है कि नाटक में लोकदृष्टि ही नहीं अपितु सहज, सरल भाषा प्रवाह के साथ ही भाव भंगिमाएं भी मायने रखती हैं। सफल नाटकों की यही विशेषता रही है। घनशाला जी की नाट्य कृतियां इसमें खरी उतरी हैं। आपकी नाट्य कृतियों में भाव भंगिमाएं यथा – लटुली बणौंद-बणौंद, कांगुली निकाळी तैं, अचाणचक, आंखा घुरैकि इत्यादि भाव भंगिमाओं का प्रयोग जनभाषा पर आपकी शूक्ष्म दृष्टि को ही प्रमाणित करती हैं।
मंचीय दृष्टि से भी घनशाला जी की इन नाट्य कृतियों में ज्यादा तामझाम, तड़क-भड़क नहीं रहती है। घर आंगन की अनुकृति या साधारण सी भू दृश्यावलियां ही देखने को मिलती हंै। सुबेर, रूमका, दुफरा, रात्रि! अर्थात् घटनानुसार समय का ध्यान भी है। और सामाग्री जैसे कि – झोला, लालटेन, लोटा, डिब्बा, गागर, पतेलु, थकुलु, डडळु, कर्छुलू, कटोरी ,तौलु, डंडा, गंज्याळु, हुक्का, तम्बाकू, चीनी, चाय के गिलास, ऐनक, टोपी, लाठी, लाकुड़, धुपाणु, आसन, दाळ-चैंळ, गौंत, कामळु, काजळ, फून्दा, चूड़ी, बिन्दी, ताळु, चाबी, डौंर, थाली, जन्मपत्री अर्थात् अपने ही आस-पास की आम जरूरत भर की वस्तुएं रहती हैं।
यह युक्ति भी सत्य के करीब है कि एक प्रतिभा कई प्रतिभाओं की पे्ररणाश्रोत बनती है। घनशाला जी के ‘गढ़गाथा कला मंच’ से भी कई प्रतिभांए उभरी हैं। उन्हीं में से एक प्रतिभा है- अनुज जगत रावत! ‘गढ़गाथा कला मंच’ से जगत ने भारतेन्दु नाट्य एकादमी, एन.एस.डी. की रेपरेटरी से बाॅलीवुड की कई फिल्मों, सीरियलों में अपनी लम्बी अभिनय यात्रा तय कर दी है। निसंकोच कह सकते हैं कि ‘गढ़गाथा कला मंच’ ही नहीं अपितु एक छोटे से शहर गोपेश्वर की यह बहुत बड़ी उपलब्धि रही है। घनशाला जी का उल्लेख होते ही अनुज जगत रावत ने भी दूरभाष पर कम शब्दों में संतुलित बात कही है कि- ‘कुलानंद घनशाला’ जी की गढ़वाली नाटकों के क्षेत्र में बहुत बड़ी उपलब्धि रही है।’
आपकी इन्हीं उपलब्धियों के आधार पर ही यदि आपकी रचनाधर्मिता का मूल्यांकन करें तो पिछले तीन दशक से गढ़वाली रंगकर्म के एक बड़े हिस्से में आपकी छाया साफ दिखती है। विसंगतियों के निराकरण के लिए – हास्य और व्यंग्य – ये दो विधाएं आपके पास मुख्य औजार के रूप में रही हैं। इंन्ही से आपने औषध भी दी है और सर्जरी भी की है।
आस-औलाद, मनखि बाघ, अब क्य होलु?, क्य कन तब, रंगछोळ मंचित – प्रकाशित कृतियों एंव उज्याड़, जख्या-तखि, भाग जोग, मेरू गौं, जल्मभूमि, चन्द्र सिंह गढवाली, मेरू बैंकुण्ठ, कखि लगीं आग कखि लग्युं बाघ नामक अप्रकाशित लघु नाटिकाएं, गीत नाटिकाएं, एकांकी नाटकों के साथ ही आपका एक बाल नाट्य संग्रह ‘हुणत्याळि डाळी’ प्रकाशनाधीन है।
इसके साथ ही- एक वृहद 51 गढ़वाली नाट्यकर्मियों के नाटक, गीत नाटिकाओं, लघु नाटकाओं, एंकाकी नाटकों का एक वृहद संग्रह को अंतिम रूप देने में जुटे हुए हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि तेरी सौं, हंन्तया, याद आली टिहरी, सौ करार गढ़वाली चित्रपटों में भी गढ़वाली भाषा-भाषी आपकी प्रतिभा से रूबरू हुए हैं। यह गढ़वाली रंगकर्म का सौभाग्य ही है कि आप बैंकिग सेवा जैसी व्यस्त सेवा के साथ-साथ इस साधना के लिए भी समय निकालते रहे हैं। हार्दिक खुशी होती है कि आज भी आपकी कार्यकारी क्षमता बनी हुई है-आप थके नहीं हैं। या यूं कहें कि हर नूतन कृति के साथ आप भी नवीन हैं।
यूं तो आपकी रचनाएं ही किसी पुरस्कार, सम्मान से कमतर नहीं हैं। फिर भी- समय-समय पर राठ जन विकास समिति द्वारा ‘राठ गौरव’ सम्मान, अखिल गढ़वाल सभा द्वारा सम्मानित, उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा लोकभाषा सम्मान तथा अन्य अनेक सम्मानों पुरस्कारों से आपकी बहुमुखी प्रतिभा सम्मानित हुई है। लेकिन समग्र मुल्यांकन होना अभी बाकि है।
निसंदेह कह सकते हैं कि घनशाला जी भविष्य के गढ़वाली नाट्यकारों ही नहीं अपितु गद्यकारों के भी पथप्रदर्शक हैं। हम- इस बात पर भी गर्व महसूस करते हैं कि आप तमाम ‘वालों’ की भूलभुलैया में उन गिने चुने लोगों में से हैं जो नगर से महानगर की ओर नहीं ताकते हैं बल्कि – अपनी जड़ो से जुड़े जनपदों की ओर श्रद्धा भाव से निहारते हैं।
अग्रज श्री! आप साधना में लगे रहें! साथ ही आपकी कीर्ति फलक को और विस्तार मिले! आप शतायु जीएं!
आलेखः नरेंद्र कठैत


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