हे ईश्वर! हम तो लाटे हैं! आप ही न्याय करें!
पंजाब सरकार का एक विज्ञापन मीडिया में अक्सर देखने में आ रहा है- जिसमें एक युवा की नौकरी लगने की सूचना से समूचे परिवार में खुशीयों की लहर दौड़ पड़ती है। लगभग माह भर पूर्व ही -उत्तराखण्ड के डोभ श्रीकोट गांव में अंकिता की नौकरी लगने की सूचना से भी उसके गरीब परिवार में कुछ वैसी ही खुशी की लहर दौड़ी होगी। खुशी की बात तो थी ही। गरीब परिवार में बेटी या यूं कहें एकलौते जन की रोजगार की शुरूआती तलाश खत्म हुई थी- आगे बेटी के हुनर और उसकी मेहनत से परिवार की उम्मीदों ने भी थोड़ी राह पकड़नी थी। लेकिन….उम्मीदें सपनों से आगे न बढ़ सकी।
पौड़ी श्रीनगर राज मार्ग पर दस किलोमीटर की दूरी पर एक मोड़ पर लिखा मिलता है -डोभ! दो चार दुकानों के वजूद के साथ यह बोर्ड, डोभ तथा आस पास एक दो अन्य गांवों का प्रतिक्षालय भी है। इसी गांव से पहले पहाड़ी की ओर एक अन्य उबड़-खाबड़ पथरीले मोटर मार्ग पर लगभग एक किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद पूछताछ करने पर एक राही ने कहा-
भैजी! श्रीकोट के लिए यहीं पगडण्डी से नीचे उतर लें!
उसी पगडण्डी से नीचे कुछेक ही कदम बढ़े थे कि एक बहन का स्वर सुनाई पड़ा- ‘जबारि औण छौ उबारि क्वी नि आइ! अब औणा छन-पछतौ देणू!’ उस बहन के इन शब्दों को सुनकर थोड़ा ठिठक गया। किंतु अगले ही क्षण उसे आश्वस्त करने के भाव से जवाब दिया- ‘भुली! त्यरु ब्वन बि सहि च! कमी त सदानि हम मा हि रै! पछतौ देकि बि क्वी वापस नि ऐ! पर हम लाटौंन बार-बार धोखा खैकि बि कबि सबक नि ले! ’
-‘भैजी बुरु नि मण्यां! मी तुमू कु हि नि छौं ब्वनू! तौळ देखा दि क्या लंगत्यार लगीं च!’
बहन के इन धीमे स्वरों में कही गई इस पंक्ति के साथ नीचे पगडण्डी पर चढ़ते-उतरते जनों पर दृष्टि पड़ी। एक क्षण बहन के शब्दों के सारतत्व पर ग्लानि भी हुई। मन ने झकझोरा भी – वास्तव में हमनें किसी के मर्म को तब जाना जब बिपदा टूट पड़ी। इसे हम अपना लाटापन ही कह सकते हैं। खैर! इसी पगडण्डी पर चुपचात आते-जाते राह जनों के कांधों से टकराते एक किलोमीटर के फासले पर पांच सात छितराये घरों के बीच अंकिता के पिता के घर पहुंचे।
निचले तल पर गौशाला, ऊपरी आवास पर चढ़ने के लिए पत्थर की सीढ़ीयां। आधुनिकता का न कोई दिखावा,न चिन्ह। दिवारों पर गोबर-मिट्टी पुती हुई। शहर के करीब होने पर भी हमारे आम पहाड़ी घरों जैसी तस्वीर।
लेकिन – इसी बीच मेरी दृष्टि पत्थरों की सीढ़ीयों पर टिक गई । देखता हूं- उन सीढ़ीयों के चारों ओर अथाह काई जमी हुई है। सत्य कहूं -सीढ़ीयों पर इतनी काई पहली बार देखी। एकाएक लाटापन के खोल से बाहर आकर बुद्धि थोड़ा सोचने को मजबूर हुई। सोचा जाकर पूछूं इन सीढ़ीयों से – वह बिटिया दिनभर में कितनी बार इन सीढ़ीयों से ऊपर नीचे, चढ़ी उतरी होगी? क्या कभी इस काई पर वह डगमगाई या फिसली थी?
इसे गरीबी ही कहेंगे कि अभी तक भी सीमेंट कंक्रीट इन सीढ़ीयों पर जमी काई का स्थान न ले सकी। लेकिन जरूर यही वे सीढ़ीयों की काई रही होगी जिसने उस बिटिया को कदम-कदम पर संभल संभलकर चलने की सलाह दी होगी। दरअसल यह काई नहीं उसकी तमाम उम्मीदों की ऐवरेस्ट भी रही होगी। इसके साथ ही ज्यादा मुंह न खोलना, बड़े बुजुर्गों का सम्मान करना, ढ़ंग के कपड़े पहनना। इंही संस्कारों और सीख को वह अपने बैग में रखकर ले गई थी। इन संस्कारों में पली बढ़ी हमारी बेटी उच्छृंखल कैसे हो सकती थी? लेकिन सत्ता के मद में चूर, बड़े बाप के बेटे और उसकी मित्र मंडली ने इसे समझा ही नहीं।
समझ तो हम भी नहीं रहे हैं! लाटे जो ठहरे!
देख रहे हैं -अंकिता की माँ बार-बार बेहोश होकर गस खा रही है। इधर हम में सेे हर एक मोबाइल धारी मीडिया कर्मी की भूमिका में है। हर किसी के पास बिटिया के पिता के लिये रटे रटाये प्रश्न हैं। बंधुओं ! क्या हर एक प्रश्न का जवाब बिटिया के पिता को ही देने हैं? वही प्रश्न बार-बार पूछकर हम बेबस पिता को मशीन समझ बैठे हैं। जिन प्रश्नों के हल हमनें स्वयं खोजने थे उनके हल हम उसके बेबस पिता की ओर से तलाश रहे हैं। पिता को भी क्या हम इतना लाटा समझ बैठे हैं कि वह व्यवस्था के आगे दहाड़ मारकर अपना जी हल्का न कर सके? लेकिन इतना समझने बुझने की हमारी संवेदनाएं ही मर चुकी हैं।
बर्तन मांजने, घोड़े हांकने में बुराई नही हैं।
लेकिन गधे ही अगर हमारे घोड़ो को हांकने लगे तो यह समय कुंम्भकरणी नींद में सोने का नहीं है। तमाम माॅल, हाॅल, होटल, लौज, रिजौर्ट पर पहाड़ के दूर दराज के युवा जो दिन रात काम पर जुटे हैं – वे भी निश्चित रूप से शोषित हैं। उनको सूचीबद्ध कर हम उनके दुख दर्द को भी जानने का प्रयत्न करें। आखिर कब तक हम लाटे बने रहेंगे।
आस-पास मुसाफिर हैं ! सभी को सांय ढलते ही देहरादून की ओर दौड़ना होता है। अतः राजमार्ग पहले की भांति ही अपनी रफतार पकड़ चुके है। क्योंकि उनको हमनें भागदौड़ के लिए ही बनाया है- इसलिए उन्होंने भी हमारे दुख दर्द को समझना नहीं – बस भागना ही सीखा है। समूचा पहाड़ खामोश है । प्रतीत होता है हम लाटों की संगत में वह भी लाटा सा हो गया है।
ऊपर से -वो! देख रहा हो या न हो – आसमान भी खुला है। छिटपुट बादल इधर उधर भाग रहे हैं। आंगन में धूप खिली है। किन्तु लगता है बिटिया के हिस्से की धूप आज भी नहीं उतरी है।
बिटिया को श्रद्धाजंलि लिखने में उगुंलियां कांप रही हैं। आखिर उस देवत्व को श्रद्धांजलि कैसे दे दें जिसकी लौटने की उम्मीद में अभी भी सीढ़ीयों पर बैठी बूढ़ी दादी की पथराई आँखें एकटक आसमान की ओर ताक रही हैं।
हे ईश्वर! हम तो लाटे हैं! आप ही न्याय करें!
नरेंद्र कठैत की कलम से
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