*क्या हिंदी की दशा और दिशा को लेकर हम गंभीर हैं?*
[आलेख– कमलेश कमल ]
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आज 14 सितंबर है। हिंदी दिवस अथवा राष्ट्रभाषा हिंदी को समर्पित एक दिन। सरकारी एवं निजी संस्थानों में ख़ूब सारे आयोजन और फ़िर साल भर के लिए निश्चिंत। इन तमाम आयोजनों के मध्य एक प्रश्न मौजूँ है कि क्या सच ही हिंदी की दिशा और दशा को लेकर हमारा राजनीतिक नेतृत्व और हमारा समाज गंभीर है? तथ्य तो कुछ और ही इशारा करते हैं।
जिस भारत में 70 करोड़ से अधिक लोग हिंदी समझते-बोलते हैं, वहाँ इन दिनों अँगरेज़ी को लेकर एक दीवानगी, एक पागलपन की स्थिति दिखाई देती है। ग़रीब से ग़रीब आदमी भी अपने बच्चे को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाना चाहता है। तथ्य तो यह भी है कि 10 से 12% भारतीय ही अंग्रेजी समझते हैं और इसमें भी मात्र 3% ही ठीक से अंग्रेजी बोल पाते हैं। पर, बच्चों को अपनी मातृभाषा छोड़ अंग्रेजी की शिक्षा दिलवाने का सपना पूरे समाज का एक बड़ा तबका देखता है।
स्थिति यह है कि अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की फीस सामर्थ्य से अधिक हो, पर कुछ हो जाए बच्चे को वहीं भेजना है, गोया अँगरेज़ी नहीं सीखी तो कुछ नहीं सीखा। बच्चा गणित न जाने, विज्ञान न जाने, सामान्य विज्ञान और सामान्य जानकारी औसत से भी कम रहे तो कोई बात नहीं, अंग्रेजी का एक्सेंट ठीक होना चाहिए। सोच कर दुःख होता है कि अपने बच्चों को अँगरेज़ी बोलते सुन, निहाल होते माता-पिता यह नहीं समझ पाते कि वे बच्चों के सर्वोत्तम विकास की संभावना को किस कदर क्षीण कर रहे हैं।
क्या विडंबना है कि बच्चों द्वारा हिंदी ठीक से नहीं समझने पर माँ-बाप ही दूसरों को बताते हैं , “ अरे, यह तो इंग्लिश मीडियम में पढ़ता है, इसको यह सब पता नहीं है। इसके बरक्स अगर शिक्षण मनोविज्ञान की बात करें तो 11 वर्ष से पूर्व बच्चों पर किसी दूसरी भाषा को सीखने का दबाव नहीं होना चाहिए, क्योंकि बच्चा सबसे सहज रुप से अपनी मातृभाषा में ही सीख सकता है। दूसरी भाषा में शिक्षण की शुरुआत से बच्चे के मानसिक विकास में अवरोध उत्पन्न होता है ।
उपर्युक्त स्थिति को एक उदाहरण से देखा जा सकता है : घर में माँ कहती है ,”बेटा खा ले” ; जबकि विद्यालय में टीचर कहती हैं, “eat properly”। अब तनिक संवेदनशील होकर विचार करने पर हम यह देख पाएँगे कि यह भी बच्चे पर एक दबाव है। विद्यालय का माहौल एक प्रकार का विलायती माहौल या अनजाना माहौल हो जाता है और मनोविज्ञान कहता है कि अनजाना माहौल ही डरावना माहौल होता है ।
हम देखते हैं कि घर में एक बच्चा मम्मी, पापा, दादा, दादी, भाई , बहन से हिंदी में जो बात करता है, वही बात विद्यालय में बोलने पर शिक्षक कहते हैं “Don’t talk in vernacular !” क्या यह एक अजीब और त्रासदपूर्ण सी स्थिति नहीं है?
ध्यातव्य है कि अँगरेज़ी में शिक्षण अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में फलदाई होता तो उच्च शिक्षण संस्थानों में जहाँ अंग्रेजी में पढ़ाई होती है, वहाँ गुणवत्तायुक्त शिक्षण का सर्वथा अभाव न दिखता। विश्व के 200 शीर्ष विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय का न होना और एशिया के 50 विश्वविद्यालय में भी यहाँ के एक भी नाम का न होना बहुत कुछ कहता है। यहाँ द्रष्टव्य है कि भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर के देशों में शिक्षा का माध्यम मूलतः उस देश की राष्ट्रभाषा ही है, अँगरेज़ी नहीं।
शोध से पता चलता है कि विश्लेषणात्मक क्षमता और तर्कपूर्ण वैचारिक पद्धति के निर्माण के लिए मातृभाषा में शिक्षण आवश्यक है । मातृभाषा में शिक्षण सिर्फ़ सुविधाजनक और आसान ही नहीं होता, वरन् सहज और मज़ेदार भी होता है।
जहाँ तक हिंदी की बात है तो यह एक सरल, सहज, वैज्ञानिक और प्रवाहपूर्ण भाषा है, जो मंडारिन के बाद विश्व में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है। ऐसे तथ्य यह है कि विश्व के तमाम देशों में बसे हिंदी भाषियों को मिलाकर हिंदी बोलने वालों की संख्या मंडारिन से भी आगे जाती है। यहाँ जो मैथिली, भोजपुरी, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी आदि बोलनेवाले के रूप में चिह्नित हैं, वे भी हिंदी बोलते हैं। एक अनुमान के अनुसार पूरे विश्व में 135 करोड़ लोग हिंदी समझते हैं।
उपरिलिखित तथ्यों के अलावा भी बहुत सी चीज़ें हिंदी के पक्ष में जाती हैं। इसकी वैज्ञानिकता सिद्ध है। यह जैसी बोली जाती है, वैसी ही लिखी भी जाती है । इसके अलावा, यह सुविधाजनक और आसान है तथा लोकभाषा की विशेषताओं से संपन्न है। एक तथ्य यह भी है कि हिंदी लोचदार भी है और बोलचालजन्य आग्रहों को स्वीकार करने में सर्वथा समर्थ भी। सबसे सुखद तो यह है कि वैश्वीकरण के इस दौर में एक विशाल विश्व बाज़ार विकसित हो रहा है जिसमें हिंदी की भूमिका उत्तरोतर बढ़ रही है। मानना होगा कि किसी अन्य चीजों की तुलना में बाजार और जनता के सरकारों ने हिंदी को अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक भी बनाया है ।
हमारे लिए आवश्यक है कि हिंदी की महत्ता और इसकी शक्ति को पहचानें, न कि किसी विदेशी भाषा के पीछे भागें। ऐसे भी, मातृभाषा से कटना अपनी जड़ों से कटना है , क्योंकि हिंदी हमारे हँसने, खेलने, लड़ने, झगड़ने और स्वप्न देखने की भाषा है। अगर किसी भी कारण से बच्चे इससे विमुख रहते हैं, तो वे किस तरह से संस्कारित होंगे, यह सहज बुद्धि से समझा जा सकता है। बहरहाल, हिंदी दिवस पर होने वाले तमाम आयोजनों से निवृत्त हो, जब हम बैठें तो इस पर विचार करें कि आख़िर क्यों हम उस भाषा की महत्ता को दिन-विशेष तक सीमित कर देते हैं, जो हमारे सांस्कृतिक, वैचारिक विकास की मेरुरज्जू है।
जय हिंद! जय हिंदी!!
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