*GIC(जीआईसी) जहरिखाल लैन्सडाउन ऐतिहासिक नाम इतिहास के आइने में
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जीआईसी( GIC)जहरिखाल एक ऐतिहासिक नाम
राजकीय इण्टर कॉलेज लैन्सडाउन-
जब छात्र संख्या कम होने के कारण राजकीय इण्टर कॉलेज लैन्सडाउन को सुभाष हॉस्टल मे स्थानंतरित कर दिया गया और तब जब राजकीय इंटर कॉलेज जहरिखाल कि असली पहचान उसकी इमारत हंस फाउंडेशन को दी जा चुकी है तब स्कूल को इतिहास के आइने में देखने का मन हुआ तो* सोचा जब आज मात्र उसके इतिहास के आइने में देखने का मन हुआ तो सोचा जब आज मात्र उसके अवशेष बच रहे है और वो कही खोने जा रहा है शायद वो स्वरुप फिर देखने को मिले या नहीं तो सोचा एक बार हम इसे इतिहास के पन्नों मे तलाशे तो हमने… इतिहास प्रवक्ता श्री दयानन्द बहुखंडी जी जो 1965 से 1988 तक राजकीय इंटर कॉलेज मे कार्यरत थे का 1967 -68 की शैलजा पत्रिका मे लिखें गये लेख को आधार बना कर राजकीय इण्टरमीडिएट कॉलेज लैंसडौन के गौरवशाली इतिहास को खंगालने और विद्यालय के इतिहास की कड़ियों को जोड़ने का प्रयास पुनः किया ।
राजकीय इण्टर कॉलेज लैंसडीन, दरअसल लेंसडौन शहर से छः कि०मी० दूर जयहरीखाल में स्थित है। जयहरिखाल की यह रिज (उपत्यका) समुद्र की सतह से 1660 मीटर की ऊँचाई पर है। विद्यालय को दान दी गई अधिकांश भूमि जहरी गाँव की है। जहरी शब्द की व्युत्पति जियार शब्द से हुई है जिसका अर्थ झाड़ी से लगाया जाता है। 19वीं सदी के अन्त तक जयहरिखाल में कोई बस्ती नहीं थी। वर्तमान सड़क प्राचीन पगडण्डी थी, इसके पूर्वी ढ़ाल पर जहरी गाव तथा पश्चिमी ढ़ाल पर होली, लिंगवाणा, सकमुण्डा गांवों ने अपने अधिवास और खेतों का विस्तार किया। बुजुर्ग लोगों के कथनानुसार सबसे पहले जयहरिखाल में एक बाबा आये थे, जो सीताराम नाम से प्रसिद्ध हुये। गोरखा रेजीमेंट के सौजन्य से चुंगी मोड़ के निकट जो मंदिर बना है, उसी के पास पत्थर की गुफा में यह साधू बाबा रहते थे। लगभग सन् 1910 ई0 में सामाजिक सक्रियता और श्रद्धालुओं की मदद से बाबा ने मन्दिर को वर्तमान स्वरूप दिया । साधू की ही तरह उन्हीं दिनों एक और शुभचिन्तक जयहरिखाल आये जिनका नाम राममोहन राय था। उन्होंने बाबा के सहयोग से एक बंगाली स्कूल की स्थापना की। यह विद्यालय जयहरिखाल बाजार में लघु पाठशाला (वर्तमान में परिचारक आवास) के रूप में चलता था। बाद में बाबा से व्यवस्था सम्बन्धी मतभेद और स्थानीय लोगों के बंगाली बाबू के विरुद्ध होने के कारण विद्यालय बन्द हो गया था। बंगाली बाबू भी यहाँ से चले गये।
राजकीय इंटर कॉलेज ने राजकीय इण्टर कॉलेज लैन्सडाउन नाम से जयहरिखाल में स्थित वर्तमान विद्यालय का प्रारम्भ जनता के व्यक्तिगत प्रयासों से 1904 में इस स्थान से बाहर हुआ। कोटद्वार के श्री धनीराम मिश्र जो अपने समय के स्वनामधन्य धनी व्यक्ति थे, ने इस विद्यालय का प्रारम्भ हिन्दी के प्रथम डी०लिटू डॉ० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल के पैतृक गांव पाली में किया। श्री परमेश्वर सहाय इस विद्यालय के प्रथम प्रधानाध्यापक हुये । इस समय विद्यालय का स्तर मिडिल तक था। खेती का जमाना था अतः लोग स्कूल के लिये भूमि उपलब्ध नहीं करवा सके पाली गांव में सिर्फ दो वर्ष तक ही विद्यालय का संचालन हुआ। फिर 1906 में विद्यालय को लैंसडौन से चार किमी० दूर घूरा नामक स्थान पर स्थानान्तरित किया गया। धूरा निर्जन स्थान था। विद्यालय की शैक्षणिक गतिविधियाँ धूरा में भी ठीक से संचालित नहीं हो सकी। श्री प्रताप सिंह रावत विद्यालय प्रबन्ध समिति के सचिव नियुक्त हुये। रॉयल गढ़वाल राइफल्स लैंसडौन के तत्कालीन कर्नल ट्रैक ब्रोकमैन ने विद्यालय को कुछ सुविधायें भी दी लेकिन भवन बनाने के नाम पर कैन्ट बोर्ड के कड़े नियम बाधा बन गये। दो साल बाद अर्थात् 1908 में यह विद्यालय लैंसडौन लाया गया। विद्यालय का नाम किंग जॉर्ज मिडिल स्कूल लैन्सडाउन रखा गया। आखिर में विद्यालय को सन् 1917 में कैन्ट बोर्ड लैंसडौन की सीमा से बाहर छः किलोमीटर दूर जयहरिखाल नाम स्थान पर लाया गया । जयहरिखाल में यह पहले पुराने डाकखाने के नाम से प्रचलित श्री गोविन्द सिंह के मकान पर खोला गया। बंगाली स्कूल के नाम से बन्द पड़ी स्कूल के भवन व अन्य सामग्री को इसी में हस्तानान्तरित कर दिया गया। जनता के प्रयास से 1919 में विद्यालय का शैक्षिक स्तर मिडिल स्कूल से उच्चीकरण कर हाईस्कूल तक कर दिया गया। विद्यालय प्रबन्ध समिति ने लैण्ड एक्विजिसन एक्ट के तहत जहरी गांव वालों से विद्यालय भवन हेतु भूमि दान में ली। उसमें ग्रामीणों और प्रबन्ध समिति के समवेत् प्रयास से मुख्य भवन नाम से प्रार्थना स्थल पर ‘यू’ आकार में दस कक्षा कक्ष निर्मित हुये । वर्तमान मुख्य भवन इन्हीं कक्षा- कक्षों का परिवर्तित और परिवर्धित रूप है। पुराने भवन के पाँच कमरे अभी भी दुमंजिले नहीं हैं। मुख्य भवन से जुड़ा हुआ छः कक्षा-कक्षों का दुमंजिला भवन 1989 में बनकर तैयार हुआ। इससे पूर्व यहाँ पर एक बड़ा टिन शेड था। जिसमें 1965 से 1971 तक बी0टी0सी की कक्षायें भी चलती थी। जिसे सरकार ने विद्यालय प्रशासन से ही संलग्न कर दिया था। 1919 से जो स्थायी स्थान पर किंग जार्ज हायर सेकेन्डरी स्कूल लैंसडौन चल रहा था। उसमें भवन विस्तारीकरण एवं अध्यापकों को वेतन देने हेतु पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं था। सैनिक बन्धुओं की सहायता और जनता के चन्दे से मिलने वाले धन के बावजूद धन की कमी बनी हुई थी। ऐसी स्थिति से पार पाने के लिए कुछ लोग इसका अर्थ प्रबन्धन जिला क्षत्रिय समिति को सोंपने की सोचने लगे तो कुछ इस व्यवस्था के पक्ष में नहीं थे। विद्यालय के कुछ शुभ चिन्तकों ने लैंसडौउन में कर्नल हण्डरसन की अध्यक्षतामें एक बैठक की। जिसमें श्री कुलानन्द बड़थ्वाल, श्री जोधसिंह नेगी, श्री धनीराम मिश्र, श्री हरिराम धस्माना, श्री गजाधर डबराल आदि प्रतिष्ठित महानुभावों ने भाग लिया। विद्यालय की आर्थिक कठिनाइयों पर चिन्तन मनन करते हुये विद्यालय को राजकीय नियंत्रण हेतु राज्य सरकार से निवेदन किया गया । इस प्रस्ताव तथा राज्य सरकार को दिये गये निवेदन पर शीघ्र ही राज्य सरकार ने कार्यवाही की और 1923 में विद्यालय का नाम किंग जार्ज गर्वमेंट हायर सेकेन्डरी स्कूल लैंसडौन हो गया। सरकार के इस निर्णय से जनता,शिक्षक और शुभचिन्तक सभी प्रसन्न हुये। श्री जी० डी० जोशी विद्यालय के प्रथम प्रधानाचार्य नियुक्त हुये। इसका असर यह हुआ कि गढ़वाल के दूर-दूर ग्रामीण क्षेत्रों से आकर लोग यहाँ रहने लगे और अपने रहने के लिए मकान बनाने लगे। जिनमें श्री गोविन्द सिंह (थोकदा-जी) श्री भोला दत्त (तहसीलदार जी) श्री हरेन्द्र सिंह रावत (पूर्व अध्यक्ष, जिला पंचायत पौड़ी) श्री विश्वम्भर दत्त जोशी आदि के मकान उल्लेखनीय है। श्री जोशी जी के मकान (जो वर्तमान में जीवन धारा आश्रम के नाम से जाना जाता है) में सन् 1930-31 से 1972 क विद्यालय के प्रधानाचार्य का आवास रहा। यह आवास ऐसे स्थान पर है जहाँ सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य अवर्णनीय और अनुपम दिखते हैं। यहाँ राजस्थान के कुछ व्यापारी भी आये। 1946 में इण्टर की कक्षायें खुली। 1937 में विज्ञान ब्लाक नाम से तीन कक्षा-कक्षों का एक भवन बना जिसका उद्घाटन तत्कालीन लेफ्टीनेंट कर्नल क्लार्क ने किया । वर्तमान में इस भवन पर कम्प्यूटर कक्ष, कार्यालय एवं प्रधानाचार्य कक्ष थे । ऊपरी भवन नाम से बने दुमंजिले भवन में 12 कक्षा कक्ष एवं एक विशाल सभागार है। इन कक्षाओं में इण्टरमीडिएट की कक्षायें चलती थी । यहीं पर इण्टरमीडिएट की भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीवविज्ञान व भूगोल की सुसज्जित प्रयोगशालायें तथा विद्यालय का पुस्तकालय भी था जिसमें लगभग नौ हजार स्तरीय पुस्तकें थी । विद्यालय के पास प्रारम्भ से ही लगभग 700 नाली ( 56000 वर्ग मीटर) भूमि रजिस्टर्ड थी ।
विद्यालय के जवाहर और सुभाष नामक दो विशाल छात्रावास थे । जहाँ पहले 100-100 छात्र दूर-दूर से आकर अध्ययनार्थ रहते थे। यहाँ हास्टल वार्डन का निवास, सर्वसुविधा सम्पन्न भोजनालय भी बने हुये थे । लेकिन जगह-जगह स्कूल खुलने के कारण इन छात्रावासों में अब कोई छात्र नहीं रहता। सुभाष छात्रावास में जवाहर नवोदय विद्यालय के छात्र-छात्रायें रहते थे तथा विद्यालय के मुख्य भवन के पांच कक्षा कक्षों में अध्ययन करते थे । दूसरे छात्रावास में विद्यालय कर्मचारी रहते थे । विद्यालय में मुख्य भवन के पीछे चार बड़े वर्कशाप नुमा कमरे 1990 में व्यावसायिक शिक्षा हेतु बने थे। टंकण हिन्दी, अंग्रेजी, प्राइमरी हेल्थ वर्कर व नर्सरी की इण्टरमीडिएट स्तरीय कक्षायें दस वर्ष सुन 2000 तक चली। छात्रों द्वारा प्रवेश न लेने के कारण तथा बाद में शासन द्वारा तीनों ट्रेड बन्द कर दिये गये । इस भवन पर विगत पाँच वर्षों से आई0टी0आई0 जयहरिखाल की कक्षायें चल रहीं थी । 200 मीटर दूर सुभाष छात्रावास के निकट एक विशाल प्रांगण है। जिसमें ब्लाक स्तर, जनपदीय स्तर तथा प्रदेश स्तर तक की रैलियाँ होती हैं। यदि शासकीय कृपा हो तो इस क्रीड़ा प्रांगण को पर्वतीय क्षेत्र के अच्छे स्टेडियम के रूप में विकसित किया जा सकता था । विद्यालय के पास एक विस्तृत कृषि क्षेत्र था । यदि इण्टरमीडिएट स्तर पर कृषि विषय भी खुल जाय तो क्षेत्र के विद्यार्थियों को इसका लाभ मिलता । गूमखाल से जयहरिखाल तक कच्चा मोटर मार्ग 1954 में बनकर तैयार हो गया था जो नियोजन विभाग की सहायता और जनता के श्रमदान का प्रतिफल था। जयहरिखाल के लिए वह दिन बड़ा ऐतिहासिक था जब 1954 में रामनवमी के पुण्य पर्व पर सैकड़ो क्षेत्रीय जनता कोटद्वार से जयहरिखाल आने वाली पहली गाड़ी को देखने के लिए प्रतीक्षातुर थी। जयहरिखाल के प्रगति के इतिहास में यह दिन मील का पत्थर था। विद्यालय के विगत लगभग 87 वर्षों के इतिहास में जीवन के हर क्षेत्र में छात्र-छात्राओं ने उल्लेखनीय ऊँचाइयों को छुआ है। लेकिन एक सच जिससे इन्कार नहीं किया जा सकता, यह है कि लगभग सभी शासकीय विद्यालयों की तरह इस विद्यालय की भी छात्र संख्या अनवरत घट रही थी । उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद पिछले 8 वर्षों में छात्रसंख्या आधी से भी कम हो गई है। इस बीच पर्वतीय राज्य की संकल्पना एवं राज्य बनने के बावजूद पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन, अंग्रेजी माध्यम का जबरदस्त आकर्षण, कुकरमुत्तों की तरह हर कदम पर सरकारी व प्राइवेट स्कूलों के खुलने से तथा समाज में एक अजीब प्रकार के भ्रम ने अधिकांश राजकीय विद्यालयों की तरह इस विद्यालय की छात्रसंख्या एवं महत्व को कम किया है। यद्यपि विद्यालय को अपनी विशिष्ट उपलब्धियों गुणात्मक शिक्षा,परीक्षाफल खेलों में दक्षता आदि अन्य गतिविधियों के कारण उत्तर प्रदेश के जमाने में भी और अब उत्तराखण्ड में भी विशिष्ट विद्यालयों शुमार किया जाता रहा है। विद्यालय के सभी अध्यापक, छात्र-छात्रायें, कर्मचारी विद्यालय की उच्च आदर्श परम्पराओं को बनाये रखने के
लिए कृत संकल्प थे । फिर भी ना जाने क्यों ये इतिहास गर्भ के पन्नों मे दफ़न हो रहा है।GIC लैंसडाउन कि ये इमारत राजकीय इंटर कॉलेज की एक पहचान थी*
लेख:
ललन कुमार बुडाकोटी
अवकाश प्राप्त प्रधानाचार्य
उल्लेखनीय शैक्षिक सेवा के लिए 2008 में उत्तराखण्ड शासन द्वारा शैलेश मटियानी राज्य शैक्षिक पुरस्कार से सम्मानित।
जिलाधिकारी पौड़ी द्वारा शिक्षक दिवस पर 2015 में, शैक्षिक प्रशासन हेतु सम्मानित।
लोसा द्वारा दो बार सम्मानित।
साहित्य सृजन के लिए चन्द्र ज्योति सम्मान।
वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली स्मृति सम्मान।
आकाशवाणी नजीबाबाद से कई वर्षों तक कविताएं एवं वार्ताएं प्रसारित।
पांच कविता एवं ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित, यथा-
1-सिमटी व्यथा हूं
2-खो गए हैं गांव मेरे
3-मोड़ पर ठिठका खड़ा हूं
4-नेमतों और बेरुखी के बीच
5-कुल मिलाकर आदमी
पांच और किताबें प्रकाशनाधीन हैं।
विद्यालयी पत्रिकाओं का संपादन।
अपने गांव की स्मारिका संपादन।
की पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित।
आदि-आदि
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