November 4, 2024

Ajayshri Times

सामाजिक सरोकारों की एक पहल

एक चाय वाला ऐसा भी” समकालीन गढ़वाली कविता की चिंगारियों के बीच सुलगता अंगार!”

चाय वाले लड़के की के चूल्हे चिनगारियों से गीतकार बनने तक की कहानी जानेे पढें साहित्यकार नरेंद्र कठैत आलेख से

वीरेन्द्र पंवार:
समकालीन गढ़वाली कविता की चिंगारियों के बीच सुलगता अंगार!

बहुत कम लोग इस बात पर यकीन करते हैं कि भूख और गरीबी में भी चूल्हे की जलती लकड़ी, तपते अंगारों और काले धूऐँ से होकर भी भविष्य के पक्के रास्ते तय किये जा सकते हैं। यकीनन इस बात को वही समझ पाते हैं जिन्होंने बचपन से ही बिलबिलाती भूख में मात्र चूल्हे के तप्त अंगार करीब से देखे हैं। अन्यथा आप क्या सोचते हैं कि सुख सुविधाओं में पले-बढ़े किसी धन्नासेठ के चूल्हे की आग तापने भर से रेल के बेजान डिब्बे पटरियों पर दौड़ पड़े? या बचपन में लिंकन की झोपड़ी में विद्या अर्जन के लिए हजारों वाॅट के बल्ब जल रहे थे? पाश्चात्य जगत में भी घोर गरीबी में चूल्हे के दमकते अंगारों की रोशनी से ये दो सितारे निकले हैं। किंतु ऐसा भी नहीं कि साइन्स, साहित्य, संस्कृति, शिक्षा के समस्त क्षेत्रों में ऐसे सभी चिराग पाश्चात्य जगत से ही चमके हैं। हमारे बीच भी जलते चूल्हे के तप्त अंगारों से कई नाम उभरे हैं। किंतु इसे विडम्बना ही कह सकते हैं कि या तो उनके सृजन की आभा को हम कम आंकते हैं या उन्हें सोची समझी रणनीति के तहत नजरअंदाज कर जाते हैं।

अभाव में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के भाव पैदा होते हैं।’ इस वाक्य को भी हम जाने अनजाने न जाने कितनी बार कह जाते हैं। लेकिन हम में से कई अभावों को कोसते हैं। कुछ उन अभावों का ठीकरा औरों पर फोड़ते हैं। कुछ ऐसे भी है जो ठोकर लगने पर बेजान पत्थर को भी बीच सड़क पर रख छोड़ते हैं। किन्तु इन सब के बीच कुछ ऐसे भी हैं जो अभाव में जितने कष्ट सहन करते हैं उन्ही से आत्मबल ग्रहण कर न केवल आगे बढ़ते हैं बल्कि अगली पीढ़ी का मार्ग भी प्रशस्त करते रहते हैं। इसी खुरदरे यथार्थ के बीच बचपन से लेकर यौवन तक की दहलीज को निर्लिप्त भाव से न केवल नापने वाले बल्कि चूल्हे की जलती लकड़ी, उसके कतरे-कतरे से टूटते अंगार और उनसे झड़ती राख की लाज रखने वाले गढ़वाली भाषा के कलमकार हैं
भ्राता – वीरेन्द्र पंवार!

बचपन से लेकर यौवन तक इस कलमकार ने मात्र अभाव और अभाव के ही पड़ाव देखे हैं। जिस उम्र में बच्चे मां-बाप से खिलौनो की जिद करते हैं। खाने-पीने एंव गुब्बारे-बाजे, चश्मे, चप्पल-जूते इत्यादि हर एक चमकती-दमकती वस्तुओं के लिए मिट्टी में लोट-पोट हो जाते हैं, उस उम्र में आप गांव-गांव, मेले-ठेलों में पिता के फड़नुमा व्यवसाय में भट्टी सुलगाते और उसी की आंच पाकर बढ़े हुये हैं। क्योंकि छुटपन से ही बड़े परिवार के बीच आपके मन-मस्तिष्क में जिम्मेदारी के बीज पड़े हैं इसीलिए आपकी हर एक रचना में गम्भीरता के दर्शन होते हैं।

विगत चार दशक ये आपकी लेखनी सृजनरत है। हिलांस, बुग्याळ, अंज्वाळ, छुयांळ, सहारा समय, युगवाणी, साप्ताहिक गढ़वाल मण्डल, पाक्षिक उत्तराखण्ड खबर सार, युवा स्वप्न, धाद के कुछेक नियमित संस्करणों तथा कुछेक विगत अंकों के सह संपादन में आपकी लेखनी की मौलिकता के तेवर देखे हैं। कविता न केवल आपकी मूल विधा है बल्कि आप उन चुनिंदा समकालीन कवियों की उस पांत में हैं जो घर-गांव, खेत-खलिहान-चौपाल, रीति रिवाज परम्पराओं, बदलते संस्कारों, पलायन, पहाड़ ओर पहाड़ की रीढ़ नारी शक्ति पर कम शब्दों में भी अद्भुत भाव व्यंजना देते हैं। एक स्थान पर लिखते भी हैं- ‘मिन कविता केवल लिख्यी नि छन, भोगि छन। तकरीबन यूं सब्बि कवितौं का विचार का केन्द्र मा गौं छ अर गौं कि चिन्ता खास कैकि कवितौं मा व्यक्त हुईं छ। गौं छोड़ण मजबूरी छ कि जरूरी, सवाल यू बी छ। ह्वे सकदो कि भोळ हमारा गौं, ‘गौं’ जना नि रावन। गढ़वाली भाषा का पढ़दरा अर लिखदरा रावन नि रावन, यूं कवितौं खूण ईं भाषा खुण वे समाज को रैण जरूरी छ – जै समाज कि यि कविता छन, जै समाज कि गढ़वाली भाषा छ।’ अर्थाथ जैसा भोगते है वैसा लिखते हैं। और क्यों लिखते है वह भी स्पष्ट करते हैं।

सन् दो हजार चार के आस-पास 78 कविताओं का संकलन ‘इनमा कनक्वे आण बसन्त’ आपकी लम्बी लेखन पारी की प्रथम प्रकाशित कृति है। इसमें आपने खण्डहर होते घर-गांव, खेत-खलिहानों पर आये संकट को यथा स्थान शब्द दिये हैं-….गौं छोड़ी की गौं मा गै छौ/गौं देखणैकि गौं ऐगे छौ/….धुरपळि पठाळि सब चूणीं छै/ टुटणी सब ऊणी-कूणी छै। उरख्याळि चैकाअ् किनारा बैठीं/जन तरपर-तरपर रूणी छै!… पुंगडयूं थैं झणि को खाणू धौं/कखि क्वी औड़यूं सरकाणू धौं। टुटीं साळि कि पठाळ्यों ल्येकि/झणि अपणि कूड़ी छांणूं धौं।…. अब त गौं का बाटा बी अबाटा देखणू छौं/मनखि हौरि लाटा हौरि लाटा देखणू छौं। कख बटींकि पौंछि कख विकास देखणू छौं/कख बच्यीं छ कख रईं छ आस देखणू छौं।

पहले हमारे आस-पास बाघ, भालू जैसे जंगली जानवर थे! लेकिन अब विनाशकारी बंदर हैं! इसी समस्या को लेकर बीरू भाई ने भाव प्रकट किये हैं-‘ऐगेनि बांदर ऐगेनि बांदर/धुरपळि-धुरपळि छै गेनि बांदर।….उखड़ी सेरों दाळ गौथ की/लौणी बटोळनी कै गेनि बांदर।’ यूं तो पहाड़ के हर ढाल, हर खाल पर समस्याओं का अंबार लगा है। आपका कवि मन आहत होकर आह्वान करता है ‘.कृक्वी हाल नी दिखेणा चुचौँ कुछ करा/पौड़ छन पिछेणा चुचौँ कुछ करा।….छाड़िकी फटगीकि बी बूखो हि पै/चौँळ छन बुस्येणा चुचौँ कुछ करा/रड़दा पौड़ टुटदा डांडौं देख्यिकी/ढुंगा छन बुस्येणा चुचौँ कुछ करा/द्यबता सब्बि पोड़या छन बौंहड़ा/झणि कब होणा दैणा चुचौ कुछ करा।…..बग्तन बी कबि साथ नि दे/आणू रै अर जाणू रै।’ और हमारी स्थिति कुछ यूं है कि ‘…खाट छ झिल्ली, टाट चिर्यूं।’

लेकिन इसके लिए पहाड़ नहीं, हम ही दोषी हैं जी! पहाड़ तो ‘….अफ्वी -अफ/टुटदू रैंदों/अर /रड़नूं रैंदों सदान/पहाड़/कबि कैकु थैं/खड़ोळो/नि खैणदो।’ किंतु विडम्बना देखिए जी! ‘वो चिन्ता कन्ना छन/जौंकि फिकर कर्यांन/ढुंगौन/कुंगळा नि होण/रीता दिमाग अर खाली कीसा वळौंकि/जुकड़यों मा/लग्यीं छ ताती/कर्दरा बौल्दारा/धजा घैंटण वळा/दाढ़ी कीटी चुप्प बैठयां छन/जौं थैं चुप नि रैण चैंदों छौ/वो स्वांग सजैकि/संगरांद बजाणा छन। ….. न त बाठा बणै सकदन/न बाणांयां बाठौं हीटि सकदन।/नया बाठा बणांदरोंक/विरोध कर्दन मेरा मुल्का लोग।’

इन तमाम विसंगतियों के बीच आपने यह प्रश्न भी वाजिब उठाया है जी! कि- ‘गौं को मतलब/गौंकि खंद्वार होंदि कूड़ि/पुंगड़यूं मा दुबल्यू/सगोड़यूं मा भंगलु किलै छ/जब ब्वे अपणू शरीर खपैकि/रंगणी छ पुंगड़यूं/बुतणी छ बीज/गौं को मतलब/पंदेरा, बोण, घास, लखडु, उकाळ, उंदार/अर खौरि किलै छ। और विडम्बना देखिए-…..क्वी कैकु थैं कुछ बी बोलू/छैं छ क्वी यख/कैकि सुण्न वळो। तब क्या फरक पोड़दु/क्वी कुछ बी बोलु।’ अन्यथा काम करने की सद्इच्छा हो तो ‘…..लोग उकाळ कटणो भी/लौंफयांदन हैंकै कांध। कांध होंदी इलै छ।’

सोच के भी कई मायने हैं जी! इसी सोच पर लिखते हैं पंवार जी- ‘…सोचणा भी अपणा/कतगै तरीका छन/ क्वी/मोर्द-मोर्द भी/अपणि सोच/छोड़ जांद/क्वी स्वचदै-स्वचदै मोद जांद। लेकिन आज किसे है इतनी समझ कि …ऐंच/हौरि ऐंच/खुल्ला आकाश मा/उड़णा छां/हम जौंका परताप/वूंका नौ/भेळ- पाताळ/होणा छन। दूसरी ओर जीवन जीने के भी कई ढंग हैं…..दुन्या मा/मोन्न बचणा भी/कई ढंग छन/कतगै लोग/मोन्नाअ बाद बि/ज्यूंदा रंदन/कतगै/ज्यंद-जगद भी/मोर्यां रंदन।’

पंवार जी ने संस्कारों में आबद्ध मां की तस्वीर भी बखूबी खींची है। क्योंकि मां एक ऐसी तस्वीर है जो तमाम भौतिक परिवर्तनों के बाद भी नहीं बदली है। यूं तो मां की गाथा पवांर जी ने कई जगह दी है लेकिन यहां समग्र न सही एक दो पंक्तियां तो उतारी ही जा सकती है। लिखते हैं- ‘….हे वीं!/इतगा बदलौ मा नि बदलि/चुचि तु कै माटै छै बणी।…..सुख मा दुख मा घाम छैल मा/जमाना का दगड़ा चलणी रैंदी/ब्वेकि खौरी आलि मुछ्याळि सी/ जगणी रैंदी बुजणी रैंदी।’

वक्त गतिशील है और विकराल भी। ‘….युगौं बटी/जनि आणू/उनि/जाणू छ/इथगै मा बग्त/कतगै युग/खाणू छ।’ वक्त के साथ क्या है आजकल आदमी की औकात? ‘….रोजाअ्/अखबारै सि चार/बिना-मतलबा लोग।/बासी ह्वे जाणा छन/अजकाल।’ और अगली पीढ़ी के साथ सामंजस्य की स्थिति – ‘…..मुछ्याळि जगीं अगनै बटि/पिछनै-पिछनै आणी छ।/एक पीढ़ि हैंकि थैं/जनम देकि/पछताणी छ।’ कुल मिलाकर तस्वीर यह है कि ‘….कखि वबरा-पांडा रै गेनि/कखि डांडै-डांडा रैं गेनि/फुल्लूं का कखि डिसाण लग्यां/कखि कांडै-कांडा रै गेनि।’….एक समौ बदलेणू छ/हैंकी तरपां सूखा शंख/इनमा कनक्वे आण बसंत…।

प्रश्न एक नहीं अपितु कई खड़े हैं! लेकिन कविता के ढ़ब-ढ़ांचे में ढ़लने के वाबजूद भी आप एक रेखीय नहीं रहे। अन्य विधाओं में भी आप कलम चलाते रहे। सन् 2012 में छपी ‘बीं’ नाम की 40 गढ़वाली/हिन्दी पुस्तकों पर आपकी समीक्षात्मक कृति है। ‘बीं’ के सन्दर्भ में आपने लिखा है कि ‘बीं वु ह्याया जु चौंळु मा या झंगर्याळु मा प्वड़या रांदन। यु वेई नाजा बीज होन्दन, जु सट्टि या झंगोरै घाण कुटणा बाद बी चौंळु या झंगर्याळु मा छिलका समेत रे जान्दन। भात या झंगोरू बणाण से पैलि बिराये जान्दन। कखि-कखि ‘बीं’ का वास्ता ‘बिंया’ या ‘बिञा’ बी बोले जान्द।…‘बीं’ भित्र बी अनाज रैन्द। ‘बीं’ बूखो नी छ। ‘बीं’ या ‘बिञा’ बिरैकि नाजै घाण बण सकदि। ‘बीं’ मा शामिल पोथ्यूं की समीक्षा ‘चौंळुं’ या झंगर्याळ मा प्वड्या वूं ‘बीं’ कि तरौं छन, जु मेरि नजर मा ऐनि। बकि पोथि रूप मा नाजै घाण लिख्वारै छ। ’

दो हजार तेरह में आपकी साक्षात्कार शैली में 31 साहित्यकारों के साथ भेंटवार्ता की पुस्तक ‘छ्वीं-बथ’ छपकर सामने आई। छ्वीं-बथ में ही अपनी बात में लिखते हैं- ‘छ्वीं-बथ’ किलै? बोल्दन बल छुयूंन अर छुयूं मा हि क्वी बात ऐथर बढ़दि। बात अच्छि हो या नखरि। छ्वीं -बथ नि होलि त बात रै जालि जख्या-तखि। अच्छि अर नखरि छ्वीं बि तबी होलि, जब बात ऐथर बढ़लि।अर बात तबी ऐथर बढ़लि, जब छ्वीं-बथ होलि। छुयूं बटि छ्वीं बि तभी निकळलि जब कै दगड़ा छ्वीं-बथ होलि। ह्वे सकदु कि ऐथर यूं छ्वीं-बथ बटि कबि क्वी बात निकळ जा, कख्यो-कखि छिरकि जा।…इखमू मि इन बताण बि जरूरि चिताणू छौं कि मेरि यु छ्वीं-बथ लगौणा अर छपौणा पैथर भेटकर्ता का रूप मा कै बि साहित्यकार रचनाकार कि बड़ै कन्नै या काट कन्नै क्वी मन्सा नी च। छ्वीं बथ लगौंण मा मि तैं भारि रौंस आये, अर छ्वीं बथ सूणिक मेरा सरेलम भारि छपछपि पड़े।’

‘गीत गौं का’ सन दो हजार चौदह में सामने आया आपके चौवन गीतौं का वह महत्वपूर्ण संग्रह है जिसमें टुटते रीति रिवाज, परम्पराओं और तमाम विसंगतियों पर आपकी और अधिक पैनी दृष्टि गढ़ी है।- ‘… काकि-बोडि, ब्वे-बाब जग्वाळणान गौं/नाति-नत्येणा-ब्वारि बर्जणान छौं/सैणा ढब मा, उंदार बदळग्या/द्यखदै -द्यखदा सेरो गढ़वाळ बदल गया।’ भंयकर गरमी में स्रोत के मीठे पानी, पेड़ो की घनी छाया और हिंस्र-काफल फलों के स्वाद की लालसा मन में ही रह गई हैं। ‘….रूढ़ि का घाम अर घामु का डाम/पींणौ पाणि ना छैलौ नाम/घामुन छोया पाणि सुखैनी/ऐंसू मिन काफळ नि खैनी।….धुंद-ई-धुंध चैतर्फ दिशौं मा/सान-बाच नि रै बणूं मा/कै पापिन इ बणांग लगैनि/ऐंसू मिन काफळ नि खैनि।’ कटते वन और घटती हरियाली पर भी आपने चिंता व्यक्त की है- ‘….अबि बि डाळि लगौ रे मनखि/भोळ कपाळि पकड़ी कि रोलि।’

वर्तमान हालात यह है कि न दवा है न तिमारदार ‘…बोडी भित्र प्वड़ीं कणाणी/स्हासा लगीं दवै-दारू आंणी। और दूसरी तरफ…..दादि ह्वे बिमार दवै-दारू, देखदरू बि नी/दिनकटै हुईं- रैबार मा छ, गौं कि जिन्दगी।’ जिसे संदेशे भेजे, उसे वे संदेशे याद ही न रहे। सही तो लिखा है- ‘..देश जैकि भूलिगे/रैबार बी घूळिगे।’ और अन्य हालचाल ‘…भैर खोजि भित्र खोजि, गाड खोजि धार खोजि/मुल्लि मैलि सार खोजि, ह्वे गेनि कुहाल/दिदौं नी मिलि गढ़वाल।….कूड़ि देखणूं गयूं त, कण्डाळि को झाड़ मिलि/चमकदा लिंटर कखि, टुट्यूंऊ सिन्गाड मिलि।….ओबरा-पाण्डा भ्वीतळौं की, टुटीं मिलि पाळ/दिदौं नी मिलि गढ़वाळ। ….बोली-भाषा, लाणु-पैनु, सौब रळये-मिस्ये गेनि/थौळ कौथिगेर मनखि, झणि कख बुस्से गेनि/इना हालु मा त दिदौं क्या जि होलु भ्वाळ/दिदौं नि मिली गढ़वाळ।

कौन है इस हालात के लिए जिम्मेदार? विकास, कुर्सी की रस्सा-कस्सी या अमीर-गरीब के बीच की नून-तेल-रोटी? ऐसे हालात में पंवार जी लिखने को हैं मजबूर….‘विकास बाटु हेरण मा/नेता कुर्सी घेरण मा/लूण तेल जोड़न मा/जनता कटमचूर/घुघुति घुरा घूर, घुघुति घूरा घूर।

उच्छृंखलता की भी हद है! सुर और संगीत के बीच गीत मात्र आलाप खींचना भर नहीं है। इसके लिए गम्भीर अध्ययन, शब्दों का उचित चयन और अथक साधना करनी होती है। लेकिन ‘…लाटा, तु कना गीत लगाणी छै/ब्यो-कारिजु, थौळा -मेळों मा, सुद्दि सीटि बजाणी छै।/लाटा, तु कना गीत लगाणी छै।’ वास्तव में यह विकृति को संस्कृति बनाने की ही कोशिश है। लेकिन विडम्बना देखिये! न इनको रोकने वाले कभी एकमत हुए, न टोकने वाले कभी खड़े हुए , उल्टे हम ही उन पर छप्पर फाड़कर कलदार बरसाते रहे। इसी का परिणाम है कि ‘…लाटा-काला चण्ट बण्यां/सल्ली-साणा सण्ट हुयां।/आळि-जाळि सौकार बण्यां/विकास कि टोटगन्त चा….यु कैको उत्तराखण्ड चा।…जौंन सेणों भेळ बते/टिपड़ा बी अणमेल बतै।/राजनीति को खेल बतै/वी परदान अब पंच चा। यु कैको उत्तराखण्ड चा। …रीत नी पछ्याण नी, ना सोच ना सगोर/झणि कै जमाना, कख जाणा छां हम। जथगा ह्वे सकदू, फर्ज निभाणा छां हम।….अपणी ढौळ, अपणी भौंण, रौंस रे अईं/अब त गीत बी बिराणा, गांणा छां हम।/जथगा ह्वे सकदू,फर्ज निभाणा छां हम।’

विडम्बना देखिए! अलग राज्य बनने पर भी स्थिति नहीं सुधरी। ‘…राज बदले, हाल वी जख्या-तखि/गौं-गळौं गैराल, वी जख्या-तखि।….मोळ का माद्यो उच्चा थानु मा/भूमि का भुम्याळ, वी जख्या तखि/रीति बदले, जीणा का अन्दाज बी/पोटगि का सवाल, वी जख्या-तखि। और दूसरी तस्वीर …कखी बरखा बगाणी चा, कखी बिपदा सताणी चा/कखी त पौड़ छन टुट्यां, कखी इमदाद जाणी चा।’

नशाखोरी! अब मात्र शौकिया नहीं समूचे पहाड़ का ही, जी का जंजाल बन गया है। …‘टुन्न रा दारू पेकि सन्ट/होशो हवाश की बात न कर।’ और दूसरी ओर ‘….कति जगौं सोर छन/लाटा-काला गोर छन/टल्लि भित्र, सल्लि भैर/यु हमारा सगोर छन।/…ब्वारि छौं च बरजणी/अदगदम् जिओर छन।/साटा रैने धार-पार/लाटा धार ओर छन/द्यबता छन झसकणा/खबेस ओर -पोर छन/जौंकु पैनु सिंग चा/उ अपणा गोर छन।’

यदि आपके समग्र गीतों का अध्ययन करें तो यकीनन कह सकते हैं कि आपके गीत घर, गांव, चौपाल और पहाड़ की मर्यादा के भीतर हैं। कहीं मां, बहनों, अबलाओं के नाम नहीं लिये हैं। गीत विधा के स्तम्भ नरेन्द्र सिंह नेगी ‘गीत गौं का’ की भूमिका को आबद्ध करते हुए लिखते भी हैं कि- ‘संग्रह मा श्रंगार रस कि कमि जरूर मैसूस ह्वे मै थैं, जबकि गीतकारूं को सबसे प्रिय/मनचैंदों रस होंदु श्रंगार रस।’

लेकिन एक श्रंगार ही नहीं अपितु बीरू भाई की कविताओं में ‘आक्रोश’ भी नहीं है। लगता है तमाम आक्रोश स्वंय पी गये हैं। प्रश्न ये भी है कि आक्रोश व्यक्त करें तो किसके प्रति व्यक्त करें? सब अपने हैं। उन सब में हम भी हैं। वास्तव में दोषी हैं तो वह व्यवस्था है जिसमें हम सब शामिल हैं। इसीलिए तमाम युद्ध भले ही व्यक्ति से शुरू हुए हों लेकिन आखिर व्यवस्था के खिलाफ ही लड़े गये हैं। अस्तु कह सकते हैं कि बीरू भाई की कविताओं में संकुचित नहीं अपितु व्यापकता के दर्शन होते हैं।

दो हजार चौदह में ही साहित्यकार रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के कहानी संग्रह ‘बस एक ही इच्छा’ की ‘कथगा खौरि हौर’ नाम से गढ़वाली में अनुवाद पर आपकी सिद्धहस्तता देखने को मिली। इस कथा संग्रह के संबन्ध में आपने उदगार व्यक्त करते हुए लिखा है कि ‘तकरीबन सब्बि कथौं मा पहाड़ै खौरि छ।….जख तक भाषा कि बात छ त गढ़वळि भाषा कु हजमा भौत अच्छो च। कहान्यूं तैं हिन्दी बटि गढ़वळि मा ल्यौंण मा कखि-कखि मू मिजान का हिसाबन मामुलि सी भावानुवाद कन्न पड़े।’

मामुली ही क्यों न सही, थोड़ा परिवर्तन भी जरूरी है। क्योंकि नये रास्तों का निर्माण करना है तो कुदाल तो चलानी ही होगी। नव निर्माण के दौरान खरोंचें भी आयेंगी। ठोकरें भी लगेंगी। ये सब स्वाभाविक है भई! आपकी मौखिकी, लेखनी भी कई बार आलोचना की जद में आई। आपको अग्रजों, स्वजनों, समकालिनों की खरी-खोटी भी सुननी पड़ी। लेकिन जहां प्रतिकार सम्भव था वहां आपने प्रतिकार किया और निसंकोच झुकना स्वीकार किया जहां त्रृटि लगी। किंतु उन तमाम उठापटक के बीच आपके मौलिक सृजन की आंच जरा भी कमतर न हुई।

यह पूछने पर कि – ‘वर्तमान में गढ़वाली कविता को किस रूप में देखते हैं? सपाट शब्दों में कहते हैं- ‘जो कविता वर्तमान में छप रही है वह अभी भी उस स्तर की नहीं है जो हिन्दी या अन्य भाषा की है। और मंच पर जो कविता है वो मनोरंजन के लिए है। उससे हम गम्भीरता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। दूसरी बात कविता में एकरसता आ गई है। पहाड़ ही पहाड़ पर हमनें अनगिनत कविताएं लिख दी हैं। लिखते-लिखते अब बात समझ में बैठी है कि यदि हम पहाड़ पर कविता लिख रहे हैं तो पहाड़ सभी जगह हैं। न्यूजीलैंड में भी हैं तो अमेरिका में भी हैं। कवि से तो यह पूछा जाना चाहिए कि आप कहना क्या चाहते हैं? ’कविता के संबन्ध में यह निष्कर्ष आपकी लम्बी साधना का परिचायक है। लेकिन बात फिर वही कि इस बात को समझने वाले कितने हैं? क्योंकि मंच पर भी अभी तक हमनें टोपी पहनाकर लटके-झटके वाले गोपी ही तयार किये हैं। कहें तो किससे कहें! कोई सुनने वाला तो मिले! आपके ही शब्दों में ‘मि त बोन्नू रौं अपणा मनै/वु हौरी हौर लगाणू रै।’

लेकिन कोई तो है जिसने आपकी बात समझी है। यह तथ्य सर्वविदित ही नहीं उल्लेखनीय भी है कि आपकी कृति -‘सब्बि धाणी देरादून/होणि-खाणी देरादून/भाई बन्द अपणा छन/ह्वे बिराणी देरादून’ गीत को स्वनाम धन्य नरेन्द्र सिंह नेगी ने वाणी दी है जो किसी भी सम्मान से कमतर नहीं है। पौड़ी के एक छोटे गांव ‘केन्द्र’ से निकले, आज आप गढ़वाली भाषा के केन्द्र में हैं। यह भी कोई कम बात नहीं है। लेकिन अफसोस इस बात का अवश्य है कि चार दशक की अनवरत साधना और सारगर्भित लेखन के बाद मात्र एक कविता का मूल्यांकन? निसंकोच कह सकते हैं कि जितनी बड़ी लकीर आपने इन पंक्तियों में पहाड़ और देहरादून की विसंगति पर खींची है उससे भी बड़ा प्रश्न आपके समग्र मूल्यांकन का विचारणीय है।

एक मुख्य बिंदू और विचारणीय है जिससे हमनें जानबूझकर आंखे फेर दी है। चलो इसी परिपेक्ष्य में याद दिला देते हैं जी! हमनें अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज, संस्कार और भाषा के संरक्षण के लिए ही अलग राज्य की कल्पना की थी या नहीं की थी? या कला, साहित्य, संस्कृति के संरक्षण के लिए हमनें मात्र ‘गन, गनर और एम्बेसडर’ की मांग की थी? अफसोस है कि आज अलग राज्य बनने के वर्षों बाद भी हमारी वह कल्पना धरातल पर नहीं उतर सकी। यह विडम्बना है या हमारी घोर लापरवाही अथवा कमजोरी- कि अभी तक स्थानीय साहित्य के संरक्षण के लिए राज्य में एक अदद ‘पुस्तकालय’ की नींव नहीं पड़ी। भई! जिस भाषा के आगे ये प्रश्न खड़े हों कि- अभी तक स्थानीय भाषाओं की कुल कितनी पुस्तकें छपी? कितनी पुस्तकें सड़ी-गली? कितनी पुस्तकें अब उपलब्ध नहीं? वह भाषा- आठवीं अनुसूची तक आखिर पहुंचेगी तो कैसे पहुंचेगी?

यह लिखने में कदापि संकोच नहीं कि इन तमाम बातों से विज्ञ होते हुए भी वर्तमान में स्थानीय भाषाओं की स्थिति यह है कि आठ सौ का हल्ला, आठ का काम। पंवार जी लिखते भी हैं कि….‘सिकासौर्यूंन फौस्यूं मा उल्टा ह्वे गेनि काम/भाषा बूढ़ि दादी सी कूणा मा ह्यराम।’

ह्यराम!! इस शब्द के पीछे भी भाषा के प्रति आपकी सद्भावना ही झलकती है। एक बात और निसंकोच लिख दी है कि कोई उसे रोजगार कहे चाहे उसे नौकरी का नाम दे पर हमनें तो यह बात गहराई से पकड़ी है कि ‘हर कोई स्वस्थ्य रहे! मस्त रहे! ’ इसी निमित्त आपने गरीब ही नहीं अमीर की भी नब्ज पकड़ रखी है। बाकि….उम्मीद पर ही यह दुनिया टिकी है। चूल्हे की आग भी अभी बुझी नहीं है।

आपने एकदम सही लिखा-….‘जब तलक अंगार राला/एक हैंकि धार जाला।’ और आह्वान! वह भी संस्कृति सम्मत है आपका- ‘हात-खुट्टा छाळ द्या/द्यू-घुपाणू बाळ द्या।’

पंवार जी ! आप यूं ही भाषा की अलख जलाते रहें! शतायु जिएं!

आलेखः नरेंद्र कठैत

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