आलेख : नरेंद्र कठैत
गणेश:
विशेष व्यक्ति विशेष

रात्रि के लगभग आठ साढ़े आठ बजे हैं। तापमान माइनस डिग्री से भी कहीं नीचे है। दोनों हाथ गर्म पतलून की जेब में -और- सर से लेकर पांव तक दर्जन भर कपड़े लदे हैं। जहां खड़ा हूं वहां ऊपर छत है। और वही मेरी हद है। घुप्प घने कोहरे में कदम भर दूर बढ़ने में बाघ का भी डर है। लेकिन मेरे इर्द गिर्द घिरे इसी कोहरे को चीर वह पूछता है- ‘आज आप आग नहीं जलाये हैं?’
उत्तर दिया- ’नहीं! आज लकड़ियां गीली ही रह गई हैं।’ तनिक रूक पूछता हूं- ‘थोड़ी सी चाय बना दूं! मैं भी पी लूंगा! तू भी पी ले!’
-‘नहीं! रहने दें! फिर कभी पी लेंगे!’ – ये शब्द उसने गंतव्य की ओर बढ़ते हुए कहे।
उसके औझल होते-होते पूछा – ‘आज कितने बजे निकला था घर से?’
–यही कोई सात बजे!
अर्थात घर से निकलने के बाद लगभग 13 घंटे के अंतराल के बाद वापसी की है इस सज्जन ने।
आपके मन में भी सवाल उभर रहा होगा- ये सज्जन कौन है?
-‘गणेश!’ – बस यही तीन अक्षर का नाम है।
आपने पूछा कि- ये काम क्या करते हैं ?
-जी ये मजदूर हैं, जाहिर है मजदूरी करते हैं। लेकिन ठहरिए! ये वो मजदूर नहीं हैं जिनके लिए परिभाषा गढ़ी गई है कि – ‘मजदूर का पसीना पौंछने से पहले उसकी मजदूरी अदा कर दें।’ गणेश इस परिभाषा के खांचे में फिट नहीं है। अगर गणेश के कठोर परिश्रम के साथ दिन के शेष घंटों का भी इमानदारी से आंकलन करें – तो ये पक्का मान लें – गणेश किसी भी ऋषि से कमतर नहीं है।
गणेश ने स्वयं कहा है-कि -वह सुबह पांच साढ़े पांच बजे जाग जाता है। नहा धोकर लगभग आधा घंटा रेडियो पर भजन सुनता है। फिर हल्के से नाश्ते के बाद सात बजे के लगभग झोला उठाकर घर से निकल पडता है। लगभग तीन किलोमीटर के क्षेत्रफल में तकरीबन 200 घरों के आंगन-चौबारों तक फैला है गणेश का कार्य क्षेत्र।
ऐसा नहीं की आस-पास अन्य मजदूर ही नहीं हैं। लेकिन गणेश की सज्जनता, काम के प्रति इमानदारी के सब कायल हैं। गणेश गैंती, कुदाली, थमाली, दाथुड़ी, हथोड़ी चलाने में ही नहीं बल्कि पेन्टर का ब्रश और मिस्त्री की कन्नी साधने में भी सिद्धहस्त है। गणेश को किस दिन, कहां, किस ओर जाना है, वे गंतव्य उसके मुंह जबानी खातें में हफ्तों-महिनों पूर्व से ही तय रहते हैं।
एक बार मेरे मित्र अरूण नौटियाल ने रामपुर हिमाचल से कहा-‘यार अमूक तिथि को पिता का वार्षिक श्राद्ध है। उस दौरान छोटे बड़े न जाने कितने काम होंगे – एक आदमी ढूंढ कर रख ले।’ निर्धारित तिथि को गणेश वहां तैनात हुए। अरूण ने पिता के वार्षिक श्राद्ध के आयोजन दो जगह रखे थे। गांव में और शहर में। दोनों जगह पिता का वार्षिक श्राद्ध संपन्न करवाकर एक दिन रामपुर से मित्र के शब्द सुने- ‘भाई जो आदमी आपने भेजा था- क्या नाम है उसका- हां गणेश! वैसा आदमी आजतक नहीं देखा। लगा जैसे घर का ही कोई सदस्य है। हर काम में फरफेक्ट! भाई ऐसे आदमी को मजदूर मानकर नहीं तोल सकते।’ मित्र ने भी गणेश के लिए ये शब्द अक्षरशः सत्य कहे।
काम में गणेश की तन्मयता कुछ ऐसी है कि कई बार ये शब्द दोहराने पड़े -‘अरे भाई अब रहने दे! अब अपनी कमर सीधी कर ले!’ लेकिन उसके पास कमर सीधी करने का समय न कभी रहा न है। कह नहीं सकते हर रोज नियत ध्याड़ी से पहले वह कितने कामों में हाथ आजमाता है और कितनों को ध्याड़ी के बाद में। ऐसी स्थिति में गणेश का यूं देर रात लौटना आम बात है।
एक दिन गणेश को इमानदारी को पैमाने पर तोला। कहा-‘ भाई गणेश! ऐसा है कि एक क्यारी के लिए लहसून थोड़ा कम है। हो सके तो कहीं से…।’ समझ गया कहने का आशय क्या है? कहने लगा-‘यही तो आजतक कभी किया नहीं है।’ वास्तव में इस एरिया में उसकी लगभग पैंतीस सालों की इमानदारी का रिकॉर्ड भी यही है। और- मजदूरी जो आपने और हमनें तय की है। यदि आप सहृदयपूर्वक कुछ और न भी दें तो उसके चेहरे पर कोई सिकन नहीं है। लगता है जो दिया है वह भी उसके लिए – यथेष्ठ ही है।
ऐसा नहीं कि गणेश अपने घर परिवार के प्रति उदासीन है या उनकी जरूरतें नहीं हैं। गणेश के पत्नी समेत तीन कच्चे-पक्के बच्चे हैं। सभी पढ़ रहे हैं। उनके अलग खर्चे हैं। किराया, राशन, पानी, दूध, कपड़े ये गणेश के परिवार की आवश्यकता के भी हिस्से हैं। मालूम नहीं इनमें से कितने पूरे होते भी हैं या नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि तेज धूप, कंकपाती ठंड, मूसलाधार बारिश उसके हिस्से में नहीं है। लेकिन उसने अपनी चिंता कभी सार्वजनिक नहीं की है।
जूते पहने हैं- लेकिन जगह-जगह फटे हैं!
ठीक वैसे ही जैसे हरिशंकर परसाईं जी ने प्रेमचंद के फोटो में देखे हैं। लेकिन गणेश के फटे जूतों की हालत हम अपनी आंखों से नित देख रहे हैं। एक नहीं कई बार कहा भी है – ‘अरे! गणेश देख जूते फटे हैं! ऐसे जूतों को क्यों खैंच रहा है जो जगह-जगह से फटे हैं? न हो तो रख लें! ’ इस पर भी सदैव ही सधा हुआ उत्तर मिलता है-‘नहीं ! अभी ये ठीक हैं!’ जाहिर है उसके मन में कोई लोभ लालच या लिप्सा भी नहीं है। और यूं लगभग पैंतीस सालों से ऐसे ही फटे जूतों के बल पर उसकी ये कर्मपथी अनथक परिक्रमा आज भी जारी है।
किंतु-इस कर्मपथ पर चलने की गणेश की किसी के साथ कोई संधि या समझौता भी नहीं है। वह किसी का नौकर या बंधुआ भी नहीं है। वह कहां जाय? किस काम में अपना हाथ बटाए? ये उसकी मर्जी है। लेकिन जो काम करना है -वह हर हालत में करना है- वहां – उसकी मर्जी भी उसकी मालिक नहीं है। या यूं कहें उसने कामचोरी सीखी ही नहीं है।
एक बात और-
‘साहब’ जैसा याचक शब्द उसकी जुबान से कभी सुना ही नहीं है। उसके लिए हर एक छोटे बड़े का संबोधन आप और आप ही है। जैसे मैं हूं उसके लिए वैसे ही आप भी हैं। वह साहब संबोधन से किसी की याचना करे तो क्यों करे? एक दृष्टि से देखा जाय तो उसके व्यक्तित्व से जुड़ा हुआ यह गुण विशेष ही है। उसके पास जो कुछ भी है वह उसकी कठोेर मेहनत की निधि है। उस निधि की रोटी पर उसका वाजिब हक है -लेकिन वह रोटी भी उसकी साहब कदापि नहीं है।
ऐसा लिखने में अतिशयोक्ति नहीं कि मात्र एक यही इलाका ही नहीं बल्कि तमाम अर्द्ध शहरी घर अब ऐसे हैं कि कौन बीज कब बोना है उसके लिए भी गणेश जैसे मजदूर वर्ग पर ही निर्भर हैं। घर में पर्याप्त सदस्य मौजूद हैं लेकिन आंगन का झाड़ू भी यही लगा रहे हैं। और तो और हमारे कांधे की दस किलो आटे की थैली का बोझ भी यही गणेश-महेश उठा रहे हैं।
कह नहीं सकते सीमा के उस पार -वहां – उधर हमारा कोई गणेश है भी या नहीं है। किंतु इधर इस गणेश की इमानदारी, लगन, व्यवहार एंव कार्य कुशलता से लगता है नेपाल के आम जन के साथ कहीं न कहीं हमारी भी आत्मीयता बनी हुई है। कई लोगों के बीच यह धारणा भी घर कर गई है कि गणेश में अब वह पहले वाली शक्ति नहीं रह गई है। लेकिन भाई! गणेश की हड्डियां बज्र की तो नहीं हैं। और न ही उसकी काया फौलाद की ही है। वह कलपुर्जाें वाली कोई मशीन भी नहीं है। जैसे हम हैं वैसे ही वह भी हांड मांस का ही है।
यह क्यों न कहें! कि अगर सभ्य हैं – तो इस असंतुलित श्रम के प्रति हम शहरी, अर्द्ध शहरी लोगों की समझ बढ़े! ताकि गणेश जैसे मजदूर वर्ग को भी थोड़ा विश्राम मिले। चेतना जायेगी अवश्य देर सबेर!
इसी तथ्य के वृहद आलोक में शतायु जिए यह व्यक्ति विशेष गणेश!
आलेख : नरेंद्र कठैत
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