साहित्यकार नरेंद्रकठैत की कलम से नरेंद्र सिंह नेगी का जीवन दर्शन
उत्तराखंड की गीत संस्कृति के प्रायः बन चुके गीतपुरुष नरेंद्र सिंह नेगी पर यूँ तो मीडिया के सभी माध्यमों कहा सुना गया है कई तरह के शोध अनुवाद चर्चा परिचर्चा मीमांसा नरेंद्र सिंह नेगी पर हुई हैं पर गीतों से अलग जीवन दर्शन को प्रदर्शित करता साहित्यिक आलेख साहित्यिकार नरेंद्र कठैत की कलम से निकला यह आलेख नरेंद्र सिंह नेगी के व्यक्तित्व कृतित्व को अलंकार आभूषण पहनाती एक अमूल्य साहित्यिक रचना है जो युगों तक पाठकों के लिए शोध प्रबंध कार्य करती रहेगी । यह आलेख कला को समर्पित त्रैमासिक पत्रिका कला वसुधा के अक्टूबर-दिसम्बर अंक 2020 में भी प्रकाशित है।
स्वनाम धन्य श्री नरेन्द्र सिंह नेगी
गढ़वाली भाषा की सर्वमान्य मानक छवि !
पेड़ की एक अलग संस्कृति है। वाह्य जगत में केवल उसकी टहनी, पत्तियां, फल, फूल, हरितिमा ही दिखती है। किंतु पेड़ को पोषित व संरक्षित करने में उसके मूल की विशेष भूमिका होती है। किंतु मूल की भूमिका इतनी आसान भी नहीं है। दरअसल पेड़ की मूल जहां धसी होती है वहां मिट्टी और पत्थरों में सदैव ठनी रहती है। पत्थर कहते हम बड़े, मिट्टी कहती मैं बड़ी! इसी कशमकश मे कभी पत्थर खिसकने लगते हैं कभी मिट्टी दरकने लगती। परन्तु मूल ही पेड़ की वह मजबूत कड़ी है जो न केवल मिट्टी पत्थरों को थामने की सामर्थ्य रखती है बल्कि पेड़ के समग्र विकास के लिए गहरी और गहरी धसती रहती है।
ठीक और ठीक यही कार्य संस्कृति- हमारी प्रकृति और हमारी संस्कृति केे बीच भी है। लोक माटी में सभ्यता ओर परम्पराओं के बीच उपजी थोड़ी सी अपसंस्कृति से सम्पूर्ण समाज की ही नींव हिल उठती है। किंतु कुछ विभूतियां ऐसी हैं जो न केवल सम्पूर्ण संस्कृति को सुरक्षित रखने में तल्लीन रहती हैं अपितु उसकी जड़ों को भी गहराई से सींचने का काम करती हैं। उत्तराखण्ड की संस्कृति के मूल में गहराई तक उतरने वाली तथा उसे सिंचित करने वाली ऐसी ही एक विभूति हैं- श्री नरेन्द्र सिंह नेगी!
आप गढ़गौरव हैं ! सिद्ध हैं ! किंतु कतिपय लोग आपके नाम के आगे प्रसिद्ध जोड़ देते हैं। जबकि प्रसिद्ध की जन सामान्य से निकटता नहीं होती है। बीच में दम्भ की एक रेखा होती है। हमनें आपके आस-पास वह रेखा देखी ही नहीं है। लेकिन निकटता के बाद भी सदैव एक दुविधा अवश्य रहती है कि हमारे पास तो समय ही समय है किंतु आपके पास हमारे लिए समय है या नहीं है? क्योंकि आगन्तुकों की एक नहीं कई चरण पादुकाएं आपके कक्ष के बाहर सदैव रहती ही रहती हैं। आपके इंही व्यस्ततम् क्षणों में आपके विराट व्यक्तित्व के दर्शन होते हैं।
यकीन मानिए! यह प्रश्न जेहन में कई बार उठा कि आप चिंतन-मनन और सृजन के लिए आखिर समय कब निकाल लेते हैं? कतिपय बार पूछा भी है किंतु आप हंसकर टाल देते हैं। आपके हावभाव में टालमटोल या लापरवाही के भाव भी नहीं दिखते हैं। और मिलने-जुलने वाले हैं कि जब तक मर्जी जमे रहते हैं।
किंतु इस तथ्य को सभी रचनाकार बन्धु बखूबी जानते हैं कि आप एकमात्र ऐसे गीतकार हैं जो न केवल अध्ययनशील हैं बल्कि हर एक गीतकार, हर एक कलमकार के सृजन पर दृष्टि रखते हैं। जबकि अन्य गीतकार इस सोच के सांचे में ढले ही नहीं हैं। आखिर क्यों न कहें कि यह आपकी सिद्धता का सबसे प्रमाणिक गुण है।
आपके कार्यों का यदि सरसरी तौर पर भी विवेचन करें तो इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि आपने लोक माटी से जुड़े हुए पौराणिक, धार्मिक,सामाजिक, श्रृंगारिक, ऋतु-पर्व, दुख-दर्द के हर एक प्रसंग को अपने गीतों के माध्यम से न केवल गहराई तक जाकर छुआ है बल्कि आपने गढ़वाली भाषा के हर एक शब्द को ध्वनिबोध देकर उसे अमरत्व भी दिया है।
शब्दों को ध्वनिबोध देने की यह समझ कैसे उपजी? कहते हैं -‘आंख खुली तो मां देखी। बड़े परिवार में मां का जीवन संघर्ष देखा।’ निश्चित रूप से मां ही आपके जीवन में वह पहली विदुषी रही जिसमें आपने पहाड़ की नारी की जीवन संघर्षों की छाया करीब से देखी। आपकी ‘वा भि’ उसी पृष्ठभूमि की मर्मस्पर्शी कविता है। बी. मोहन भाई बड़े गर्व से कहते थे कि 1982 में इसी कविता से उनके गढ़वाली भाषा के कविता पोस्टर बनते चले गये। ‘वा भि’ का उल्लेख होने पर नेगी जी ने धड़ाधड़ सम्पूर्ण कविता ही यूं सुना दी-
ब्यखुनि को घाम
धार मा होलो/बोण का गोर लग्यां होला बाटा
धूळू उड़ान्द/घसेन्यूकि पांत/छनकिदि दनकिदि आणी होली
वा भि
ऐगे होलि कणांद-पिणांद/ड्यारम ऐकि/बिसैकि ससैकि
गाति का कुमुरा बिराणी होली/भूखल होलू/ज्यू कबलाणू
तीसल सांकि फुकेणी होली/पोटगिकि सुल्गीं/आग मुझोंणू
खैरैईं चुल्लि जगाणी होली।
कविता के अंतिम शब्द पर ठहरते ही नेगी जी से प्रश्न किया- ‘आपके गानों पर मां की क्या प्रतिक्रिया होती थी?’ कहते हैं कि- ‘मां की आंखें हर एक गीत में छलछला जाती थी।’ थोड़ा रूककर फिर शब्दों को संतुलित प्रवाह देते हैं-‘मां की इसी भावुकता को देखकर ‘छपछुपी’ नाम से मां पर एक कविता लिखी थी। उसके बोल थे-
मेरी जागा इन बिजोग प्वड़़यूं च
मी जब तक रोंदू नि छौं
मेरा सरोलौ छपछुपी नि प्वड़दि।
करूणा की यह भाव व्यंजना आपके मन प्राण में बसी हुई है। जिसकी तरंगें हमें आपके कई गीतों में सुनने को मिलती हंै। निश्चित रूप से कह सकते हैं कि आपकी यह प्रखर चेतना मां से ही संस्कार में मिली हुई है। 21 अप्रैल 2008 को आपकी माता श्रीमती समुद्रा देवी परमधाम को चली गई। वरिष्ठ पत्रकार गजेन्द्र मैठाणी ने दैनिक जागरण में मर्मस्पर्शी पंक्ति कुछ यूं दीे- ‘ नहीं रही नेगी जी के खुदेड़ गीतों की नायिका’!
उस दिन का एक दृष्टांन्त आज भी याद है। माता जी के पार्थिव शरीर के पास उनकी छड़ी पर मेरी दृष्टि पड़ी। पास ही खड़े नेगी जी से कहा-‘ छड़ी रहने दें? यादगार रहेगी!’
आपके ये शब्द आज स्मृति में हैं – ‘मां की कई यादें हैं! एक छड़ी मां के साथ भी जाने दें!’ –
वास्तव में मां की छाया आपके रग-रग में है। यही कारण है कि मां से जुड़ी कविताएं आपको आज भी कंठस्थ हैं।
मिलने-जुलने वाले आपके आस-पास एक और विदुषी देखते हैं। वह हैं- आपकी सहधर्मिणी श्रीमती उषा जी! आप भी विलक्षण शक्ति हैं। लियो टाॅलस्टाय के सन्दर्भ में उनकी पत्नी सोफिया का उल्लेख मिलता है कि उन्होंने टाॅलस्टाय के वृहद उपन्यासिक कृति ‘वार एण्ड पीस’ की सात बार अपने हाथों से प्रतिलिपि तैयार की। नेगी जी की अबाध सृजनशीलता और व्यस्ततम सार्वजनिक जीवन में आपका योगदान सोफिया से कमतर नहीं है।
इस तथ्य को बहुत कम लोग जानते हैं कि नेगी जी अपने सृजन के शुरूआती दौर में नाट्य विधा से भी जुड़े रहे। दिवंगत नाट्यकर्मी वीरेन्द्र कश्यप जी आपके लिखे एक नाटक जब-तब जिक्र करते सुने जाते थे – ‘यार नरु ! एक तुम्हारा लिखा वह नाटक आज भी याद है। क्या नाम था उसका….?’ इतना कहकर वह उत्तर की प्रत्याशा में नेगी जी की आंखों में झांकते। हम भी नेगी जी की ओर ताकते। लेकिन नेगी दा हमेशा हंसकर टाल देते।
अभी कुछ दिन पूर्व पुनः कुरेदा -‘नेगी जी ! आपके एक नाटक का उल्लेख कश्यप जी जब-तब करते थे।’ इस बार आपने टाला नहीं। तुरन्त जवाब दिया- ‘हां! हां! घन्ना नंद को केन्द्र में रखकर गढ़वाली भाषा में ‘करड़ू जोग’ नाम का बीस-पच्चीस मिनट का एक समसामयिक नाटक लिखा था। बाद में कई लोगों ने उसको कापी किया। लेकिन क्योंकि वह मेरी मूल विधा नहीं थी इसलिए इस ओर आगे प्रयास नहीं किया।’
बीस-पच्चीस मिनट का नाटक लिखना! निश्चित रूप से कह सकते हैं कि नाट्य विधा में भी आपको महारत हासिल थी। किंतु आपने गीत विधा को ही तरजीह दी। यह उदात्त भावना गीत विधा के प्रति आपके समर्पण भाव को ही दर्शाती है। आपके गीतों के साथ गढ़वाली भाषा की साख देश-विदेश तक पहुंची है। इसके लिए निज भाषा ही नहीं अपितु हमें भी गर्व है।
आपकी ऐसी ही एक यात्रा के बाद की घटना स्मृति में है। आप अमेरिका की यात्रा से लौटै थे। उत्सुकता थी तो मिलने चल पड़े। आपने अमेरिका यात्रा के कुछेक फोटोग्राफ लैपटाप पर दिखाये। अचानक आपको कुछ याद आया और दूसरे कक्ष में लपक पड़े। थोड़ी देर बाद जब लौटकर आये तो आपके हाथ में एक पैन था। पैन को बी. मोहन भाई को थमाते हुए कहा- ‘नेगी जी ये आपके लिए लाया हूं।’ बी. मोहन भाई गदगद हुए। इस बात को आगे बी. मोहन भाई ने कई बार दोहराया कि ’नेगी जी की एक धरोहर मेरे पास भी है।’ उसी अंदाज में आगे जोड़ देता- ‘भाई साहब आप बड़े हैं! हम तो उनके आर्शीवाद की श्रेणी में हैं!’
बी. मोहन भाई के देहावसान के बाद निकले संदर्भ ग्रंथ में आप शब्द नहीं दे पाये। इसका अफसोस हमें भी है। किंतु संदर्भ ग्रंथ का विमोचन करते हुए आपने स्पष्ट कहा कि ‘ मैं सन्दर्भ ग्रंथ में लिख नहीं पाया इसका मुुझे अफसोस है।’ निश्चित रूप से आपके व्यक्तित्व से जुड़े ये प्रसंग आपके कद को पहले से और ऊंचा कर देते है।
हम तो वह भी नहीं कर सके जो हम कर सकते थे। इसी सन्दर्भ में प्रो0 एस.एस. रावत, हे.न.बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर गढ़वाल का दिनांक 06.06.2013 का पत्र आज भी मेरे सम्मुख है। पत्र के साथ प्रोफेसर साहब ने आपके जन गीत- ‘गन्दुळु कैरियालि त्यरु छाळु पाणि गंगा जी/ मां का दुदै लाज भी नि राखि जाणि गंगा जी/गंगा मातअमी माई-हर हर गंगै/ गंगा मातअमी माई-हर हर गंगै।’ की पंक्तियां बेहतरीन मीमांसा, समीक्षा हेतु नत्थी की हैं।
सत्य लिखूं , समीक्षा तो दूर – मैं आज तक भी इसी गीत के भंवर में हूं। ऐसे में आपकी समग्र गीत गंगा की धारा को कुछेक पंक्तियों में कैसे समेट लूं?
लिखते-लिखते एक पंक्ति यह भी जोड़ दूं – कि एक नहीं कई ओर से रिश्तों की मर्यादित डोर आप से जुड़ी हुई है। शायद इसी निकटता के कारण कई बार जाने-अनजाने लापरवाही की दीवारें भी उठती हैं। किंतु हर बार आपके व्यक्तित्व की छाया में ये दीवार स्वतः ही टूटती रहती हैं। यह भी आपकी ईश्वर प्रदत्त क्षमता ही है।
यह सर्व विदित है कि आप जबानों और कानों के बीच की मूल गढ़वाली भाषा के संवाहक हैं। या यूं कहना सबसे ज्यादा उचित है कि आप वर्तमान दौर में उत्तराखण्डी लोक परम्पराओं, लोक माटी, संघर्षशील जन संस्कृति के नायक ही नहीं अपितु हमारी भाषा के भी अभिन्न अंग हैं। उत्तराखण्डी दशकों से आपके भावों को न केवल गहराई से पकड़ रहे हैं बल्कि अन्तर्मन से गुनगुनाते हुऐ आत्मसात भी कर रहे हैं।
गढ़वाली भाषा में पहाड़ी जनमानस की भावनाओं उसके परिवेश व संस्कृति यथा-पीड़ा-खुशी, हंसी-ठिठोली, साज-श्रृंगार, रास-रंग, पर्व-त्योहार, खान-पान, नाते-रिश्ते, ऋतु, पर्यावरण, उम्र के विभिन्न पड़ावों को आपने जिन सहल भावों, रागों व आवाज से संवारा है, वैसा आने वाली कई पीढ़ीयों तक कोई कर पायेगा, इस बात का संशय ही है। यह लिखना भी अर्थ रखता है कि आप संस्था, संगठनों की सीमाओं से परे हर एक रचनाकार से जुड़े हुए हैं। अतः यकीनन कह सकते हैं कि आप गढ़वाली भाषा की सर्वमान्य मानक छवि हैं।
किंतु आपकी सर्व मान्य छवि में भी कतिपय बुद्धिजीवियों का गढ़वाली को कई बोली-उपबोलियों में विभक्त करने का औचित्य समझ से परे है। दरअसल हम आम जन जीवन के साथ कम भ्रम के साथ ज्यादा जीने लगे हैं। हर एक का काम कम और झंडे ऊंचे हैं। या यूं कहें हम यूं भ्रम में भटकने को ही श्रम मान रहे हैं। ऐसे समय में यकीनन – स्वनाम धन्य नरेन्द्र सिंह नेगी अभिभावक की भूमिका में ज्यादा प्रासंगिक हैं। भाषा को समुचित दरजा देने, लुप्त प्राय धरोहरों, प्रकाशित-अप्रकाशित पुस्तकों, कला कृतियों को संरक्षण देने में आपकी अग्रणी भूमिका प्राथर्नीय है!
हमारा सौभाग्य है कि आप आज भी सक्रिय हैं। आपकी इसी सक्रियता को देखकर त्रिलोचन शास्त्री जी की कुछेक पंक्तियां बरबस याद आ जाती हैं। कविता की पंक्तियां हैं–
जी रहा हूं ठीक वैसे ही अभी तक पेड़ जैसे आम का चुपचाप
और अपने मूल से ही ले रहा हूं सरस जीवन का जरूरी ताप।
नेगी जी ! अखण्ड रहे आपका यह ताप ! शतायु जीएं आप !
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