मंथन करें ! भाषाई मुद्दों पर आप कितने गम्भीर हैं!
30 जून और 01 जुलाई को देहरादून में ‘उत्तराखंड भाषा संस्थान’ का महत्वपूर्ण भाषाई यज्ञ सम्पन्न हुआ। इसी भाषाई यज्ञ में ‘उत्तराखंड भाषा संस्थान’ से मेरे अनुरोध पर ‘लोक भाषा साहित्य मंच, दिल्ली’ के संयोजक समेत इसी संस्था से जुड़े अन्य मित्र भी मेहमानों की श्रेणी में आंमत्रित रहे।
समारोह के दौरान मंच संचालक भ्राता गणेश खुगशाल गणी भी माननीय मुख्यमंत्री,भाषा मंत्री, उपस्थित गणमान्य एवं विद्वतजनों के बीच आपकी उपस्थिति से सदन को अवगत कराना नहीं भूले। एक राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम में इससे ज्यादा सत्कार की – और अधिक अपेक्षाएं भी क्या कर सकते हैं।
किंतु प्रतीत होता है कि इस मंच के संयोजक महोदय ‘उत्तराखंड भाषा संस्थान ‘ के इस महत्वपूर्ण भाषाई प्रयास या किसी भी सम्मान प्राप्तकर्ता के काम या सम्मान से कतई संतुष्ट नहीं हुए।
गढ़वाली साप्ताहिक ‘ रन्त रैबार ‘ के 03 जुलाई 23 के अंक को पढ़कर भी यह महसूस होता है कि आपके नजरिए से ‘उत्तराखंड भाषा संस्थान’ द्वारा आयोजित साहित्यिक कार्यक्रमों के कोई मायने नहीं थे। क्योंकि ‘रन्त रैबार’ के उपरोक्त अंक में भी आपने अपने विचार ‘आठवीं अनुसूची’ पर ही केन्द्रित रखे । और आपकी प्राथमिकता के आधार पर ही आपके विचार छपे भी हैं। लगता है ‘साहित्यिकी’ का उल्लेख करने से ठीक पहले आपके विचारों के फाउन्टेन सूख गए थे।
खैर आप भाषा के विद्वत हैं । अतः कुछ प्रश्न हैं जिनके उत्तर आपसे ही अपेक्षित हैं – पूछ सकते हैं कि ‘आप इन साहित्यिक कार्यक्रमों के बीच ही अचानक क्यों इतना सक्रिय हुए?’ हम जानते हैं कि संस्थाओं के कार्य संगठनात्मक ढ़ंग से होते हैं। तो फिर सोची समझी रणनीति को संयोग भी नहीं कह सकते हैं।
आपसे न सही आपके संगठनात्मक ढांचे से पूछ सकते हैं कि उक्त साहित्यिक कार्यक्रम आपकी प्राथमिकता में क्यों नहीं रहे?’ जबकि आप साहित्यिक कार्यक्रमों हेतु ही आमंत्रित थे। मेहमान हमारे गुणगान किसी और का और संदेश आप कुछ और ही दे गए। ये तो हद है!
आपके समग्र चिंतन और उसके अनुरूप आपके प्रयास को यदि देखें – तो निश्चित रूप से कह सकते हैं कि- भाषा के संरक्षण और संवर्धन के स्थान पर आप उसे सीधे आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने के पक्ष में हैं। अशेष शुभकामनाएं हैं!
लेकिन भाई! हमने कब कहा कि हम विरोध में खड़े हैं? हम भी चाहते हैं कि भाषा को दर्जा मिले- किन्तु हम उतावले नहीं हैं। व्यवहारिक धरातल से परिचित हैं। यदि आप गम्भीरता पूर्वक प्रतिबद्ध हैं – तो कुछ प्रश्न अवश्य आपके सम्मुख विचारणीय हैं:-
आठवीं अनुसूची के लिए क्या आपके पास यथेष्ट सामग्री उपलब्ध है? जो आपकी सूची से बाहर हैं – क्या उनकी संरक्षित साहित्यिक धरोहर की आपको आवश्यकता ही नहीं है?
सवाल यह भी है कि -‘भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषाओं की तरह राज्य से एक ही भाषा को चुनने को मिले – तो क्या आप गढ़वाली, कुमाऊनी और जौनसारी तीनों भाषाओं के विकल्प देंगे ? ‘
दूसरा यह कि ‘अधकचरी तैयारी में भी किसी एक के चयन पर भाषाई कटुता से उपजे सवालों का हल आप कैसे करेंगे?’ क्षमा करें! इनके हल भी आपको अभी से तलाशने होंगे।
हम लिख रहे हैं। हमसे पहले भी खूब लिख चुके हैं। लेकिन जानते हैं हमारा साहित्य संरक्षित नहीं उपेक्षित है । संरक्षण के अभाव में हम पूर्व में कटु अनुभवों से गुजर चुके हैं।
आज भी याद है – आदरेय सुदामा प्रसाद प्रेमी जी को ‘साहित्य अकादेमी’ सम्मान के लिए नामित करने का वह वक्त – जब प्रेमी जी की समग्र पुस्तकों की खोज बीन में ही कई दिन निकल गए। जो मिली उनमें भी कतिपय के जिल्द फटे हुए थे। उनकी मरम्मत में बी.मोहन भाई जुटे । गढगौरव नरेंद्र सिंह नेगी जी उस घटना के आज भी गवाह हैं। क्योंकि इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में आदरेय नेगी जी ही हमारे मुखिया थे। लेकिन हमें मालूम है आप ऐसे श्रमसाध्य काम में हाथ नहीं डालेंगे।
फिर भी हम हैं कि आपकी विद्वता के कायल हैं। लेकिन आप ही हैं जो भूल रहे हैं कि डा.विनोद बछेती उत्तराखंड की भाषाई सरोकारों से जुड़ी संस्था ‘लोक भाषा साहित्य मंच, दिल्ली के संस्थापक हैं। और हमें गर्व है कि- वे आज इस संस्था को अपनी समग्र निष्ठा से सींच रहे हैं। किंतु संस्था के अधीन होते हुए भी अपने आत्मकेंद्रित दृष्टिकोण से आप हमें चौंका गए।
खैर! हम इन पंक्तियों से आगे बढ़ें या न बढ़ें लेकिन जानते हैं कि आप ‘लोक भाषा साहित्य मंच’ के मंथन के लिए कुछ प्रश्न अवश्य बटोर कर ले गए हैं । आप स्वयं मंथन करें कि – भाषाई मुद्दों पर आप कितने गम्भीर हैं!
**आलेख : नरेंद्र कठैत*
4/7/2023 फेसबुक से साभार*
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