उर्दू भाषा के प्रतिष्ठित शायर इक़बाल ‘आज़र’ की गजल
*ग़ज़ल*
——–
बिलक के जब कभी हम ऐड़ियां रगड़ते हैं
तो रेगज़ारों में भी चश्मे फूट पड़ते हैं
हमें मिला है सुख़न को संवारने का हुनर
ग़ज़ल के ताज में हम हीरे-मोती जड़ते हैं
तमाम शाख़ें नज़र आती हैं उदास-उदास
ख़िज़ां के दौर में जब ख़ुश्क पत्ते झड़ते हैं
ज़ियां समेटते हैं ख़ुद ही अपने दामन में
अजीब होते हैं जो लोग ज़िद पे अड़ते हैं
कभी बनाए थे हमने जो रेगे-साहिल पर
वो नक़्श मौजे-जुनूं ख़ेज़ से बिगड़ते हैं
दिलों पे होता है जब बदगुमानियों का नुज़ूल
बसे बसाए हुए आशियां उजड़ते हैं
*रगों में बहते लहू की रवानी जम सी गई*
*वो सर्द रात है ‘आज़र’ कि जिस्म अकड़ते हैं*
——- इक़बाल ‘आज़र’
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