भविष्य में हिंदी और गढ़वाली भाषा एक ही स्वरूप में दिखेंगी। नरेंद्र कठैत

अगर आंचलिक भाषाओं का थोड़ा गहराई से विश्लेषण करें तो निसंकोच कह सकते हैं कि वर्तमान में सभी आंचलिक भाषाओं का मूल स्वरूप ही तेजी से सिमटता जा रहा है। ऐसे विकट समय में प्रश्न विचारणीय है कि – किसी भी आंचलिक भाषा के शुद्ध बोलने, पढ़ने, लिखने वालों की संख्या कितनी है?
गढ़वाली बोलने वाले ही नहीं अपितु गढ़वाली भाषा के कलमकारों ने भी मूल भाषा में हिंदी और अन्य भाषा के उन शब्दों को लिखना शुरू कर दिया है जो आम प्रचलन में भी नहीं है। भाषा का ये नवीनीकरण मूल भाषा के लिए ही घातक है। यदि समय रहते हम मौलिकता की ओर न लौटें तो निसंकोच कह सकते हैं कि निकट भविष्य में हिंदी और गढ़वाली भाषा एक ही स्वरूप में दिखेंगी।
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