भगवती प्रसाद नौटियाल
गम्भीर पाठक, कुशल समीक्षक, विद्वान टिप्पणीकार




कठोर धरातल पर पटरियां तनी हैं। इंजन भी दौड़ लगाने के लिए तैयार है। लेकिन पटरियों पर दौड़ लगाने से पूर्व इंजन की क्षमता, उसके दौड़ने पर मिलने वाले दीर्घकालीन लाभ का सम्पूर्ण ब्योरा समाज के आगे रखना आवश्यक है। अन्यथा, इंजन की दौड़ का फायदा जन सामान्य तक नहीं पहुंच पायेगा। तथा उचित समय पर सही दिशा निर्देश के अभाव में इंजन के लिए किसी भी सिंगनल का कोई औचित्य नहीं रह जायेगा। इसलिए दौड़ से पूर्व एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जो इंजन में अनवरत दौड़ने की कार्य संस्कृति का विकास कर सके तथा इंजन के दौड़ लगाने के बाद उससे मिलने वाले लाभ को आसान शब्दों में जन सामान्य को समझा सके। किन्तु, इंजन के गुण-दोषों की व्याख्या भी वही व्यक्ति कर सकता है जिसने उस इंजन की सम्पूर्ण कार्य संस्कृति को पहले देखा हो, परखा हो, साधा हो।
एक लौह पथ पर दौड़ते इंजन ही नहीं अपितु जीवन का कोई ऐसा पथ नहीं जहां ऐसे पारखी की आवश्यकता न पड़ी हो। वेद व्यास के महाभारत में श्री कृष्ण के रूप में जो चरित्र आया है वह भी इसी श्रेणी का है। मन, वचन, कर्म से न धर्म कि हानि हो, न धर्म की ग्लानि हो।
साहित्य भी एक ऐसा ही क्षेत्र है जहां गम्भीर पाठक ही किसी रचना के बाहर और भीतर झांकता हुआ ‘समीक्षक’ के रूप में खड़ा दिखता है। लेकिन किसी भी रचना की समीक्षा करना आसान कार्य नहीं है। वृहद हिन्दी साहित्य का अवलोकन करने पर मात्र पांच-सात समीक्षक ही ऐसे हुये हैं जिन्होेने इस क्षेत्र में अपना स्थान निर्मित किया है। जिनमें एक नाम नामवार सिह का है। किन्तु यदि विगत पांच दशक के गढ़वाली साहित्य पर नजर डालें तो कुशल समीक्षकों में से एक नाम ‘श्री भगवती प्रसाद नौटियाल’ उभरकर आता है।
सवाल उठता है कि किसी रचना के मूल्यांकन या समीक्षा की आवश्यकता क्यों पड़ती है? इस प्रश्न के जवाब में नौटियाल जी अक्सर कहते हैं कि कोई भी रचना परिपूर्ण नहीं होती। रचना का कोई अंत भी नहीं है। रचना का जो पहला स्वरूप उभरकर सामने आता है वह बनाने वाले को तो संतुष्टि दे सकता है लेकिन उसमें भी सुधार की गुंजाइश बराबर बनी रहती है। इसके लिए रचना के मूल्यांकन या समीक्षा की आवश्यकता पड़ती है। एक स्थान पर ख्यातिनाम व्यंग्यकार परसाई जी ने भी लिखा है कि ‘जिसे लोग बोलते हैं भाषा होती है, जिस रास्ते लोग चलें वह सड़क होती है’। अर्थात भाषा और रास्ता दोनों में मजबूत पकड़ होनी चाहिए।
श्री तोता राम ढौंडियाल जी की पुस्तक ‘गढ़वाली मांगल गीत’ जब समीक्षा हेतु नौटियाल जी के पास पहुंची तो वे मुख पृष्ट को देखकर ही एकदम चैंक पड़े । चित्रकार ने मुखपृष्ट पर सुहागन नारी के मुख पर नथ को जिस ढंग से उकेरा था वो वास्तविकता के एकदम विपरीत था। नथ, नारी के बायीं नाक केे स्थान पर दांयी नाक की ओर दिखा दी गई थी। किसी का भी ध्यान इस त्रुटि की ओर नहीं गया। इस पुस्तक की समीक्षा पर उठे विवाद के बाद नौटियाल जी ने विस्तृत तर्क सम्मत प्रतिक्रिया ‘उत्तराखण्ड खबर सार’ के फरवरी 2008 के अंक में विस्तार से दी है। प्रतिक्रिया की शुरूआत में ही नौटियाल जी ने लिखा है कि ‘बहुत मुश्किल है किसी के लिखे हुये पर लिखना। खासकर तब, जब लेखक के पीछे बिना किसी ठोस मुद्दे के लेखकों की लाइन हो’।
कई बार नौटियाल जी इतने सूक्ष्म तथ्यों को पकड़कर सामने ले आते हैं जिन पर अक्सर ध्यान नहीं जाता। इन पंक्तियों के लेखक की एक पुस्तक की पांडुलिपि का अवलोकन करते हुये नौटियाल जी ने एक पत्र में लिखा है- ‘आपन जै जै शब्द दगड़ि मा कि संधि करे वु ठीक नी लगणू। किलैकि वे मा शब्द दबणू छ। जनकि समोदरमा, मानसूनमा य इन्नि कति दर्जनू शब्द मा, मा जोड़न से शब्द दबगि । औण वळा समय मा गढ़वळि का लेखक ह्वे सक्द समोदर शब्द तैं समोदरमा समझण लग जावुन। जु कि शब्द का साथ खिलवाड़ होलु। अतः म्यरु सुझाव च कि शब्द दगड़ग मा नि जुड़े जाव। मा तैं अलग ही लेख्ण ठीक होलु- समोदर मा । इन्नि खुणि शब्द बि च। एक ही शब्दै पुनरावुत्ति शैली का वास्ता घातक होंद। ये से यू भी आभास मिल्द कि लेखक मूं ये शब्द का अलावा क्वी शब्द नी। अतः इना शब्दु तैं अदला – बदली का साथ लेखणु ही श्रेयस्कर होलु’।
गढ़वाली साहित्य की शायद ही कोई ऐसी पुस्तक हो जो आपकी नजरों से न गुजरी हो। समीक्षा के साथ-साथ कई पुस्तकें आपकी द्वारा लिखी गई भूमिका से आबद्ध हैं। सन् 1977 में अबोध बन्धु बहुगुणा जी द्वारा रचित कालजयी गढ़वाली महाकाव्य ‘भूम्याळ’ को भूमिका में बांधने से आपके सफर की सुरूआत से लेकर अद्यतन अनवरत जारी है। आप लगभग पचास गढ़वाली पुस्तकों की भूमिकायें, अनगिनत पुस्तकों की समीक्षायें तथा सम सामयिक मुद्दों पर आधारित कई मत-अभिमत लिख चुके हैं।
गढ़वाली साहित्य में नौटियाल जी का व्यक्तित्व एक ऐसे सख्त मिजाज शिक्षक के रूप में आता है जिसकी कक्षा में हर कोई विद्यार्थी अनुशासन में बंधा रहता है। कई ऐसे कलमकार हैं जिन्होनेे नौटियाल जी को अपना होम वर्क कभी दिखाया ही नहीं है। और कई ऐसे हैं जिन्होने होम वर्क दिखाने के बाद उनकी टिप्पणियों को ही तह खाने में दफन करना उचित समझा।
स्वयं लेखक भी उनके मिजाज का अंदाजा लेना चाहता था। मन में यह धारणा संजोकर कि ‘जो होगा, देखा जायेगा’ ‘लग्यां छां’ व्यंग्य संग्रह की पांडुलिपि नौटियाल जी को भूमिका लिखने हेतु भेज दी। हफ्ते भर बाद फोन पर नौटियाल जी के सीधे सपाट शब्द सुनाई पड़ते हैं ‘ मान्यवर आपकी पांडुलिपि छापने योग्य नहीं, फाड़ने के मतलब की है। बोलिये ये पांडुलिपि फाड़ दूं।’ मन में सवाल कौंधा, यार ये कैसा आदमी है, जो सीधे पांडुलिपि को ही फाड़ना चाहता है। लेकिन अगले ही क्षण खयाल आया कि चिंता कि कोई बात नहीं, क्योंकि मेरे पास एक प्रति सुरक्षित है। यही सोचकर, नौटियाल जी के तेवर में ही जबाब दे दिया-‘ठीक है जी….! फाड़ दीजिए’ ! इतना सुनते ही नौटियाल जी ने फोन काट दिया।
अगले दो-तीन दिन इसी उधेड़बुन में गुजर गये कि अब भूमिका लिखवाने किसको भेजी जाय? अकस्मात एक दिन मुझे स्पीड पोस्ट से एक डाक प्राप्त हुई। भेजने वाले के स्थान पर लिखा था- भगवती प्रसाद नौटियाल। लिफाफा खोलकर देखा तो अन्दर मेरी वही पांडुलिपि थी जिसे नौटियाल जी फाड़ने के लिए कह रहे थे। किन्तु जब पांडुलिपि के पन्ने एक-एक कर पलटना शुरू किया तो विस्मय से आंखे खुली रह गई। नौटियाल जी ने एक कुशल शिक्षक की भांति अक्षर-अक्षर, सार्थक-निरर्थक शब्दों की छंटनी और उनके संशोधन की हिदायत के साथ ‘भूमिका’ भी लिखकर भेज दी थी। उनके इस गुरू गम्भीर भाव को देखकर गदगद ही नहीं, उनका कायल भी हुआ। तब से नौटियाल जी मेरी लगभग सभी पुस्तकों का अवलोकन/संशोधन ही नहीं, उनको पुस्तकाकार रूप देने तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आ रहे हैं। दरअसल नौटियाल जी बाहर से कठोर मिजाज होने के वावजूद भी ‘अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट’ कबीर वाणी केे सन्निकट हैं।
इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि आपके पास अकूत गढ़वाली शब्द भण्डार है। इसी खूबी का आंकलन कर ‘अखिल गढवाल सभा देहरादून’ ने ‘गढ़वाली-हिन्दी-अंग्रेजी त्रिभाषी शब्द कोश’ निर्माण में आपको संयोजक की भूमिका सौंपी। आपने गढ़वाल भवन की एक छोटी सी कोठरी में इस कोश निर्माण की साधना को लगभग पांच बहुमूल्य वर्ष दिये। आज लगभग तीस हजार शब्दों का यह वृहद संकलन, उत्तराखण्ड संस्कृति विभाग के सौजन्य से छप चुका है। लेकिन विडम्बना देखिये कि संस्कृति विभाग ने संयोजक को भी एक प्रति भेंट करनी उचित नहीं समझी। साथ ही एक हजार रूपये की भारी भरकम धनराशि रखकर, कोश को आम पाठकों की क्रय सामथ्र्य से ही बाहर रख दिया।
सवाल यह भी उठ सकता है कि भगवती प्रसाद नौटियाल जी से ही किसी पुस्तक की भूमिका या समीक्षा क्यों लिखवाई जाय? तो इस प्रश्न का उत्तर साहित्यकार चिन्मय सायर की कलम से पढि़ये। ‘मन अघोरी’ में चिन्मय सायर ने इस प्रश्न के जबाब में बेबाक लिखा है- ‘श्री नौटियाल जी से ही लिखांण ये निश्चय कु एक ही कारण छ कि श्री नौटियाल जी ही मि थैं एक मात्र पाठक मिलीं जौंन ‘पसीन की खुशबु’ अर ‘तिमला फूूल’ की कविता गहराई से पैढिकिन बिंगैन’।
अन्यथा ऐसे भी लोग हैं जो झंडा तो लोकभाषा के उन्नयन का उठाये हुये हैं लेकिन लोकभाषा के लेखकों द्वारा मार्ग दर्शन हेेतु भेजी गई पुस्तकें उनको मिली या नहीं इसका भी उत्तर एक पोस्टकार्ड पर भेजने में अपनी तौहीन समझते हैं। लेकिन श्री नौटियाल जी के पास आदर से पहुंचाई हुई कोई भी रचना बिना अभिमंत्रित हुये वापस नहीं आती। प्रसिद्ध चित्रकार श्री बी.मोहन नेगी वर्षों पुरानी एक घटना का जिक्र करते हुये कहते हैं कि एक बार उन्होंने बातों ही बातों में श्री नौटियाल जी से प्रसिद्ध चित्रकार मोलाराम पर आधारित पुस्तक ‘गढ़वाल पेंटिंग’ का जिक्र मात्र किया था। किंतु नौटियाल जी ने यह पुस्तक तुरन्त पार्सल द्वारा सप्रेम भेंट के साथ श्री नेगी जी को भिजवा दी थी। ये स्नेह-भाव उनकी मातृभाषा के प्रति सम्मान एंव जिम्मेदारी के ही सूचक हैं।
आपने गढ़वाली साहित्य के उन्नयन के लिए कार्यरत कई संस्थाओं में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वहन किया। आपको समय-समय पर इतनी जिम्मेदारियों सौंप दी गई कि आप अपनी रचनाओं को भी व्यवस्थित करने का समय नहीं निकाल सके। कहते हैं कि दिल्ली में सन् 1959 से लेकर 1993 तक उन्होंने तीन बार मकान बदले और हर बार के बदलाव में सबसे अधिक नुकसान पुस्तकों, पत्रिकाओं और पेनों का ही हुआ। गढ़वाली पाक्षिक ‘उत्तराखण्ड खबर सार’ में ‘खुद’ जैसे भाव प्रणव शब्द पर लिखा आपका आलेख बार-बार पठनीय रचना है। आशा करते हैं कि अतिशीघ्र ही उनकी यत्र-तत्र बिखरी रचनाओं का ग्रंथाकार रूप पाठकों को उपलब्ध होगा। गढ़वाली साहित्य के साथ-साथ हिन्दी में भी आपने वृहद कार्य किया है। ‘हिन्दी पत्रकारिता की दो शताब्दियां और दिवंगत प्रमुख पत्रकार’ तथा ‘मध्य हिमालयी भाषा, संस्कृति, साहित्य एवं लोक साहित्य’ नाम से प्रकाशित दोनों पुस्तकें शोध संदर्भित हैं।
ये हमारा सौभाग्य है कि हमें गढ़वाली साहित्य में श्री भगवती प्रसाद नौटियाल जी जैसा कुशल समीक्षक व मार्गदर्शक मिला है। छियासी वर्ष की वय होने पर भी भगवती प्रसाद नौटियाल नाम का यह गम्भीर पाठक, कुशल समीक्षक, विद्वान टिप्पणीकार आज भी उसी कर्मठता, उसी सजगता, उसी समर्पण भाव के साथ साहित्य रूपी पटरी पर दौड़ते इंजनों का मार्ग दर्शक है।
मातृभाषा के इस श्रमजीवी को ईश्वर स्वस्थ, सुखद एवं दीर्घ आयु प्रदान करे!
आप भौतिक रूप से भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं । लेकिन आज भी आप आस-पास ही हैं कहीं गये नहीं हैं!
आलेख : नरेंद्र कठैत
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