अगर किसी पुस्तक का लेखक तीस पैंतीस चालीस हजार तक तीन सौ या पांच सौ प्रति निकालकर सप्रेम भेंट ही समाज को दे रहा है तो वो ऐसे प्रकाशको की दुकान ही तो चला रहा बिना बाजार प्रबंधन के अभाव में
किसी भाषा साहित्य के साहित्यकार , लेखक का विस्तार तब तक नही हो सकता जब तक रॉयल्टी देने वाले प्रकाशक न हो। जब तक गली मोहल्ले नगर कस्बों में खुले छोटे छोटे प्रकाशक जो सिर्फ बीस पच्चीस हजार तीस पचास हजार लेकर लेखकों किताब लेखकों देदे और किताब बस पुस्तकालय और सरकारी खरीद पर किसी संस्थान मुंह देख रही हो इस हाल में साहित्य आगे नहीं बढ़ सकता है और ऐसे प्रकाशन प्रकाशक कहलाने के हकदार भी नही । महानगरों और मेट्रोसिटी के कुछ प्रकाशको को छोड़ बाकी प्रकाशको हाल सही नही है। भारत जैसे विशाल देश में अन्य लोकभाषाओं के साहित्य पिछड़ने का यही कारण लेखक अकेला पड़ जाता है। और अगर हिंदी भाषा का कोई लेखक मेट्रोसिटी या बड़े प्रकाशको से दूर है तो वो भी बस एक तरह छोटे प्रकाशको को आत्मनिर्भर बनाकर उनका चूल्हा ही जला रहा है।
और ऐसे प्रकाशन प्रकाशक कहलाने के हकदार भी नही । महानगरों और मेट्रोसिटी के कुछ प्रकाशको को छोड़ बाकी प्रकाशको हाल सही नही है। भारत जैसे विशाल देश में अन्य लोकभाषाओं के साहित्य पिछड़ने का यही कारण लेखक अकेला पड़ जाता है। और अगर हिंदी भाषा का कोई लेखक मेट्रोसिटी या बड़े प्रकाशको से दूर है तो वो भी बस एक तरह छोटे प्रकाशको को आत्मनिर्भर बनाकर उनका चूल्हा ही जला रहा है। अगर किसी पुस्तक का लेखक तीस पैंतीस चालीस हजार तक तीन सौ या पांच सौ प्रति निकालकर सप्रेम भेंट ही समाज को दे रहा है तो वो ऐसे प्रकाशको की दुकान ही तो चला रहा बिना बाजार प्रबंधन के अभाव में

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