ख़ून की होली
[ कविता : कमलेश कमल]


वीर जवानों आज उठो
अब खेलनी ख़ून की होली है।
उठो, वीर रणभेरी बजी
बस, छुपी दुश्मनों की टोली है।।
यह पुलवामा या उरी नहीं
यह चूहों का हमला है।
भारत माँ के आँचल में
यह धब्बा ख़ून का गहरा है।।
बहता लहू जो उनकी रगों में
लहू नहीं है, पानी है।
दूध छट्ठी का बतला ना सके
तो जंगजू तेरी व्यर्थ जवानी है।।
पहले भी बंकर मारे तुमने।
दिखलाया है ताक़त को।
फौजी बूटों की ठोकर से
लतियाया है उनकी हिमाक़त को।।
48, 65 या फ़िर 71
जब भी लड़े तुम, जीते हो।
ढूंढो उन्हें हूरों से मिलाओ
कितना अब सहते हो??
धर्म-निरपेक्षता जात हमारी
भाई-चारा की भाषा है।
स्नेह, प्रेम, सद्भाव, मिले
यही लोकपिपासा है।।
पर, सच है कि सहने की
एक सीमा होती है।
इसके बाद ख़ुद ही
यह भीरुता बनाती है।।
सत्ता सुविधा दे न दे
यह देश तुम्हें दुआ देगा।
साहस पौरुष सब तेरा है।
इतिहास तुम्हें गौरव देगा।।
संपोलों को तुम पहले कुचलो
जो बिल-बिलाकर आते हैं।
हो सके तो उन्हें भी कुचलो
जो उन्हें बचाने आते हैं।।
यह दर्द बहुत गहरा है वीरों
यह और नहीं सहना है।
सवा अरब सिहों का प्रण है
अब और नहीं सहना है।।
समस्त शहीदों की शहादत को सहस्त्रो बार नमन
🙏🙏जय हिंद💐🇮🇳💐जय भारत🙏🙏