कह नहीं सकता इस मिट्टी में
किसका सुख- दुख दफन है और किसका नहीं है !
यह एक अकेला खंडहर भर नहीं है । यहां दूरं-दूर तक मंजर ऐसा ही है। आखिर ये मजबूत दीवारें कैसे ढह गई हैं? क्या ये अपनी बुनियाद पर मजबूती से खड़े होने में सक्षम नहीं रही हैं?
याद है जीने के उस पार का वह मुच्छड़ घमंड सिंह फौजी! गुस्से में जब भी इनमें से एक दीवार उसके घूंसे खाती तो पिता कहते – ‘ लगता है यह बिल्डिंग नहीं टिकेगी। नालायक कहीं का! स्टुपिड!’ लेकिन दिवार ने कभी चूं तक नहीं की। और आखिर, थककर एक दिन घमंड सिंह ने दीवार से सटी वह खोली ही छोड़ दी। वह दीवार जुल्मों के उन प्रहारों को सहती जैसे पहले थी वह तब भी वैसे ही खड़ी रही।
और- उस दिन प्रभु जाने क्या परिस्थिति रही या मालूम नहीं चालक दल की क्या मजबूरी थी? लेकिन- दूसरे दिन आई. एन. ए. मार्केट के पीछे वाले नाले में हमनें उस छोटे जहाज की पूरी आकृति अपनी नन्हीं आंखों से पड़ी देखी थी। किंतु – तब भी इनमें से किसी भी दीवार पर न दरार पड़ी न कोई छत ही टूटी थी। यकीनन कह सकता हूं ये दीवारें यूं ही नहीं टूटी, झुकी होंगी।
पास खड़े एक सज्जन से पूछा- भाई जी ये दीवारें कैसे यूं खंडहर में तब्दील हुई? उत्तर मिला -अरे आपको मालूम नहीं वो इसलिए कि ये आज की इस दिल्ली की बहुमंजिली संस्कृति से अछूती रह गई थी।
लेकिन भाई ! मेरे लिए ये आज भी खंडहर भर नहीं हो सकती हैं। इनसे न जाने कितनी स्मृतियां हैं जुड़ी हुई हैं। औंधे मुंह गिरी हुई ये दीवारें – मेरे दिलो-दिमाग में आज भी दो तल के ढांचों का बोझ उठाती दिख रही हैं।
देख रहा हूं ऊपर चौड़ी छत आज भी हमारे सर पर वैसी ही खुले आसमां का बोझ उठा रही है। इन्ही दीवारों के सहारे चढ़ने- उतरने के लिए मजबूत जीना या आज की भाषा में कहें सीढ़ी वैसी ही तनी हुई है। ठीक सामने डिस्पेंसरी और बिजली घर माना कि वे – अब वजूद में नहीं – लेकिन उसी डिस्पेंसरी की आड़ में थुलथुल शास्त्री जी के आसपास हलचल आज भी वैसी ही दिख रही है । कहते हैं दफ्तर से आने के बाद बीड़ी माचिस की लकड़ी की वही पेटी शास्त्री की अतिरिक्त जरूरत भी है या यूं कहें उनका शगल भी है।
और वो आमने-सामने के क्वाटरों के बीच में जो चौड़ी सी जगह है मिट्टी में तब्दील हो गई है – वही- हां वही दिनभर सबसे ज्यादा चहल-पहल वाली जगह रही है। रह-रह कर गुब्बारे! कबाड़ी! वे आवाजें कानों में रह-रह कर गूंज रही हैं।
और हां! पिता के एक दोस्त का नाम स्मृति पटल पर तैर आया – उनका जिक्र मेरी जिद अथवा नादानियों, शैतानियों पर घर में अक्सर होता था। जैसे माना कि कभी – अगर पिता को बाहर जाना होता और मैं साथ में चलने की जिद पर अड़ जाता – तो पिता से एक लम्बा वाक्य सुनाई देता-‘ ये ऐसे नहीं सुधरेगा! अब रावण को बुलाना ही पड़ेगा।’ इतना सुनते ही मैं फौरन अंदर की ओर दौड़ लगा देता । हालांकि रावण न कभी हमारे घर आया न ही पिता के साथ ही उसे कभी कहीं देखा। लेकिन रावण का भय था। दरअसल उस भारी भरकम काया को मैंने एक दिन किदवई नगर की रामलीला के मंच पर तलवार लहराते देखा था। और यूं- अगर सत्य कहूं – मेरे जीवन में जो पहला कार्यसाधक डर था वह पिता के उसी दोस्त रावण का था।
वह छोटी किंतु महत्वपूर्ण घटना भी मेरे जेहन में है- उस रोज सुबह सबेरे वे अंकल घर पहुंचे। पिता से कहते सुने गये-‘ मोहन! क्वाटर बदल रहा हूं। इनको कहां ढोकर ले जाऊं। ये मेरी ओर से तू अपने पास रख लें।’ अंकल आपका नाम भले ही यहां कहीं नहीं है लेकिन उन चार आयल पैंटिग्स में दो आज भी हमारे पास आपकी धरोहर ही हैं।
माना कि यहां यहां – वहां ये मिट्टी के ढेर या दूर-दूर तक अब मिट्टी के टीले ही टीले हैं- इस जगह पर यक़ीनन अब एक बहुमंजिली इमारत तो हर हाल में उठनी ही उठनी है। लेकिन इसके नीचे दबे हुए हर एक कंचे,लट्टू पर हमारी उंगलियों के निशान तो लगे हुए ही हैं। कई ख्यातिलब्ध महानुभावों के कदमों की छाया भी यहीं इन्हीं ढ़ेरों के नीचे दबी हुई हैं।
कहां गये होंगे यहां -वहां दाना चुगते उन जैसे पंक्षी? या उनके लिए भी यहीं कहीं बहुमंजिली इमारतें बन रही होंगी ? या वे भी भूखे प्यासे खुले आसमां में इसी उम्मीद से कहीं भटक रही होंगी कि- एक न एक दिन ये बहुमंजिली इमारतें उनका भी पेट भरेंगी।
देख रहा उस ओर! अपने दोस्त कमल को! हालांकि पांच दशक से हम कभी दुबारा मिले ही नहीं हैं। लेकिन उसकी डबडबाई आंखें आज भी सेवा नगर के रेलवे क्रासिंग के उस ओर ही एकटक अनथक देख रही हैं । दरअसल- क्रासिंग के उस ओर उसका छोटा भाई कालू गया था जो कभी लौटकर आया ही नहीं है।
आलेख नरेंद्र कठैत
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