आदिम प्रेम
{बस्तर केंद्रित कविता–©कमलेश कमल}
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सिर पर गुलाबी रिबन बाँधती माँ ने
एक राजकुमार का चित्र गढ़ा था
तेरह की भी नहीं हुई थी
कि जिस-तिस में देखती
उस राजकुमार की झलक
तुम्हारी काली छरहरी देह
और केसों में सजे कंघे ने
एकदम से मन मोह लिया था
चाहती तुमुल प्यार में बहना
घोर-घनघोर प्यार करना
कोदो या बासी भात खाती
अचार को चूसती
हँस पड़ती थी
सच्ची, तुम कभी करौंदे
तो कभी आम के अचार लगते थे
गिलहरी जब भागती
हल्की सी आहट पर
पेड़ की ऊँची डाली तक
सोचती, तुम्हें ले भागूँ
पहाड़ी की किसी गुफा में
हर आहट से दूर
हँसी आती है, पर सच है
कभी हँसुए से कटहल को छीलती
कल्पना करने लगती
तुम्हारे हाथों के रगड़ की
मैं छुपकर देखना चाहती
मुर्गी को अंडा देते
बत्तखों को मिलते
और तुमसे कहूँ
कि कबूतरों के मिलन में तो
मैं पढ़ती बस कबूतरी की आँखें
चख ली थी एक दिन
बाबा की छोड़ी हुई सल्फी
पता नहीं कैसे, मगर
तुम मेरे घर आ गए थे
शाम हुई, नशा टूटा
मैं गुमसुम उदास थी
तुम्हें बताऊँ कि
बारिश होती तो सोचती
कैसे मेघ के सुविकसित स्तन
उफन कर झर रहे हैं
ख़ुद को ही देखती मैं
वेग से बहती नदी में
धारा जब ज़ोर से रगड़ती
आतुर पत्थर को
मचल जाती मैं
कैसे बताऊँ तुम्हें
कि दलदल पार करते
किसी दुपहरी में
ऐसा लगा था मानो
मेरे पाँवों को सहला रहे हो तुम
अब जब तुम खो गए हो
मेरे राजकुमार
मैं तुम्हें ढूँढती हूँ
बस, इन्हीं अहसासों में।
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