‘जयशंकर प्रसाद : महानता के आयाम’
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कवित्वविहीन कविता के इस दुर्धर्ष काल में जब इंटर बटन दबा-दबाकर मिनटों में कविता लिखी जा रही हो एवं आत्ममुग्धता के उच्छवास को साहित्य-सर्जना समझ लिया जाता हो; किसी शोधपूर्ण एवं गंभीर साहित्यिक ग्रंथ का प्रणयन किसी बड़ी साहित्यिक-परिघटना से कम नहीं है।
जिम्मेदारीपूर्वक कहना चाहूँगा कि आज के साहित्यिक-परिदृश्य में बहुत कम पक्वधी साहित्यकार हैं, जो महनीय साहित्यकारों के साहित्यिक-अवदान की अवगाहना करने एवं तत्सम्बन्धी रेखांकन-मूल्यांकन करने का कठिन उद्यम करते हैं। उचित ही आश्वस्ति है कि प्रतिभाएँ विरल होती हैं और प्रतिभा को सराहना सबसे कठिन। ऐसे में, डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय द्वारा लगभग 31 वर्ष निवेशित कर ‘जयशंकर प्रसाद : महानता के आयाम’ ग्रंथ का प्रणयन करना किसी तापसिक-कृत्य से कम नहीं है।
विवेच्य ग्रंथ जयशंकर प्रसाद के सम्पूर्ण साहित्य के वस्तुनिष्ठ विश्लेषण और उनको उनका अपेक्षित स्थान दिलाने के महनीय लक्ष्य को लेकर लिखा गया है। इस ग्रंथ में सुचिंतित और सुस्पष्ट प्रविधि से यह सिद्ध किया गया है कि महाकवि जयशंकर प्रसाद हिंदी ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व-साहित्य में बीसवीं सदी के श्रेष्ठ कवि हैं।
इसमें कोई अत्युक्ति नहीं कि प्रसाद न केवल भारतीय कविता की अस्मिता के प्रतीक हैं, वरन् अत्यंत संश्लिष्ट और समग्र-समर्थ सर्जक हैं, जिनके जटिल, विराट्, बहुस्तरीय एवं बहुआयामी साहित्य को किसी एक विचारधारा अथवा प्रतिमान के आधार पर विश्लेषित अथवा रेखांकित किया ही नहीं जा सकता।
ध्यातव्य है कि केवल किसीको महान् अथवा सार्वकालिक महान् कह देने का कोई मूल्य नहीं और कदाचित् इसलिए ऐसी उद्घोषणाओं-उद्भावनाओं को पाठक गंभीरता से लेते भी नहीं। जब अनुसंधित्सु-भाव एवं सूक्ष्मेक्षिका से कोई सिद्ध साहित्यकार अपना कार्य करे, तभी सुयोग से किसी ऐसे महनीय ग्रंथ का प्रणयन सिद्ध होता है। मुम्बई विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एवं हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय के सामर्थ्य का परिचय पाठक इससे लगा सकते हैं कि वे समकालीन हिन्दी आलोचना में सक्रिय सबसे बड़े हस्ताक्षर हैं। इसप्रकार, प्रसाद जैसी अप्रतिम प्रतिभा के साथ न्याय करने के लिए उनसे समर्थ कलम और क्या होती?
ग्रंथकार ने गीता के अठारह अध्याय की भाँति जयशंकर प्रसाद की महानता के अठारह प्रतिमान तय किए हैं एवं अपने विशद् ज्ञान एवं अद्भुत विश्लेषण-क्षमता से यह संसिद्ध किया है कि कैसे प्रसाद एक-एक प्रतिमान पर एकदम खरा उतरते हैं। निश्चितरूपेण, साहित्य के सुधी-पाठकों, प्राध्यापकों सहित हिंदी के विद्यार्थियों, शोधार्थियों के लिए इस ग्रंथ को पढ़ना एक महत्त्वपूर्ण अनुभव होगा।
केवल प्रसाद की महानता के विविध आयामों की तार्किक विवेचना पढ़कर समृद्ध होने के लिए ही नहीं; वरन् इस पुस्तक को इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए कि किसी व्यक्तिकेन्द्रित कृति को किस प्रकार लिखा जाना चाहिए। किसी ऐसे ग्रंथ का विन्यास कैसा हो, उसके निकष क्या हों, तर्कसरणी कैसी हो…यह सब इस कालजयी ग्रंथ के अनुशीलन से सहज सीखा जा सकता है। यद्यपि विधा भिन्न है, तथापि प्रसाद के परिप्रेक्ष्य में इस ग्रंथ ने वही कार्य किया है, जो शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय के लिए विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखित जीवनी, अमरकृति ‘आवारा-मसीहा’ ने किया। इस ग्रंथ का व्याप अपेक्षाकृत विस्तृत और बहुरंगा है, जो अकादेमिक होते हुए भी रोचक है।
जब तक हिंदी-जगत् में प्रसाद के बारे में पठन-पाठन होता रहेगा, इस ग्रंथ की उपादेयता अक्षुण्ण बनी रहेगी। मेरी विनम्र सम्मति में इसे हिंदी आलोचना-जगत् की महदुपलब्धि के रूप में देखा और समझा जाना अभीष्ट होगा।
आपका ही,
कमल
[तस्वीर : दिल्ली के होटल सम्राट में एक आत्मीय भेंट के पश्चात् ग्रंथकार डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय द्वारा ग्रंथ की एक प्रति प्राप्त करते हुए!]
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